________________
पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
परम्परा का पारिभाषिक शब्द है । इस शब्द का इस अर्थ में व्यवहार अन्य किसी दर्शन में नहीं मिलता । व्युत्पत्ति के आधार पर जिनका संयोग और पार्थक्य हो सके, उन्हें पुद्गल' कहते हैं। जैनग्रन्थों में पूरण और गलन स्वभाव के कारण ही पदार्थ को 'पुद्गल' बताया गया है। पुद्गल के विशेष गुण या धर्म चार हैं स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण पुद्गल समस्त भौतिक जगत का आधार है। मूलतः पुद्गल द्रव्य परमाणु रूप है। इसके दो भेद हैं- अणु और स्कन्ध। पुद्गल का वह अन्तिम भाग जिसका पुनः विभाग न किया जा सके, अणु कहलाता है। जिनमें स्थूल रूप से पकड़ना, रखना आदि व्यापार का स्कन्धन अर्थात् संघटना होती है, वे स्कन्ध कहलाते हैं । पुद्गल को अन्य द्रव्यों से पृथक् स्वतन्त्र माना गया है क्योंकि पुद्गल के प्रदेश अपने स्कन्ध से अलग हो सकते हैं, परन्तु जीवाजीवादि अन्य द्रव्य अविभागी हैं।"
144
३. पुण्य
जैनदर्शन में स्वीकृत नव तत्त्वों में 'पुण्य' को तृतीय स्थान दिया गया है। जो आत्मा को पवित्र बनाता है उस शुभकर्म को 'पुण्य' कहते हैं। आ० हेमचन्द्र ने कर्मों के लाघव को भी 'पुण्य' माना है।
४. पाप
1
1
पुण्य का प्रतिपक्षी तत्त्व पाप है जो आत्मा का पतन करे, उस अशुभकर्म को पाप कहते हैं।" सर्वार्थसिद्धि के अनुसार जो आत्मा को शुभ से बचाता है, वह पाप है जैसे असातावेदनीय आदि ।' पुण्य | और पाप दोनों का सम्बन्ध कर्मपुद्गलों से है और दोनों ही कर्मबन्ध के कारण हैं। संसार दशा में ये जीव के साथ बंध को प्राप्त होते हैं, इसलिए उनका अन्तर्भाव आस्रव तत्त्व में हो जाता है।
५. आस्रव
'आस्रव' जैनपरम्परा का पारिभाषिक शब्द है, जो आत्मा के साथ कर्मों का संबंध कराने वाले हेतुओं के अर्थ में प्रयुक्त होता है। कहा गया है कि जिन हेतुओं से कर्म आत्मा में प्रविष्ट होते हैं, वे 'आसव' हैं। जैन दार्शनिकों के अनुसार जीव शरीर, वाणी और मन - इन तीन साधनों से क्रियाओं में प्रवृत्त होता है । शरीर वाणी और मन के सामान्य व्यापार को जैन परिभाषा में 'योग' कहा गया है। वही आस्रव है" क्योंकि इन्हीं तीनों के योग द्वारा आत्मप्रदेश में स्पन्दन होने से आत्मा में एक विशेष अवस्था उत्पन्न होती है।" यह आस्रव शुभ और अशुभ भेद से दो प्रकार का होता है शुभयोग से मुख्यतया पुण्य प्रकृति का तथा अशुभयोग से पाप-प्रकृति का आस्रव होता है । ३
१.
२.
३.
४.
५.
६.
७.
।
पूरणगलनान्वर्थसंज्ञत्वात् पुद्गलाः तत्त्वार्थराजदार्तिक ५/१/२४. पू. ४३४ तत्त्वार्थसूत्र, १/२३
वही,
१/२५
तत्वार्थराजवार्तिक, ५/८/१० पृ० ४५०
प्रवचनसार, २/६६: षड्दर्शनसमुच्चय ४६ अध्यात्मसार, ५/१८/६० योगशास्त्र. ४/१०७
तत्त्वार्थसूत्र, ६ / ३ प्रवचनसार, २ / ८६, अध्यात्मसार, ५/१८/६०
सर्वार्थसिद्धि ६/३/५१६
सर्वार्थसिद्धि ६/२/६१: श्रावकप्रज्ञप्ति ७६ पर स्वो० ०
८.
६.
१०. कायवाङ्मनः कर्मयोगः । - तत्त्वार्थसूत्र, ६/१
११.
स आस्रवः । - तत्त्वार्थसूत्र, ६/२
१२. सर्वार्थसिद्धि ६/१/६१०: श्रावकप्रज्ञप्ति, ७६: ज्ञानार्णव, २/१७६
१३. तत्त्वार्थसूत्र, ६/३ सर्वार्थसिद्धि ६/३/६१४ श्रावकप्रज्ञप्ति ७६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org