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________________ योग और आचार 133 'अवधिज्ञान' है। जिस ज्ञान से संज्ञी, पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जाना जा सके, वह मनःपर्ययज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान भावों की विशेष निर्मलता और तप के प्रभाव से उत्पन्न होता है। इसलिए अवधिज्ञान की अपेक्षा इसे श्रेष्ठ कहा गया है। जैन-परम्परा में ज्ञान की पराकाष्ठा को अनन्त और असीम माना गया है। परिपूर्ण ब्रह्मज्ञान, परिशुद्ध आत्मज्ञान अथवा केवलज्ञान, ज्ञान की उसी पराकाष्ठा के बोधक हैं। ज्ञानावरणादि चार घातिकर्मों के पूर्णतः नष्ट होने पर जो एक निर्मल, परिपूर्ण एवं असाधारण ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं। केवलज्ञान से त्रिकालवर्ती सभी द्रव्यों और उनकी पर्यायों को एक साथ जाना जा सकता है। यह ज्ञान की सर्वोच्च अवस्था है। इसके प्राप्त होने पर आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और परम चिन्मय बन जाता है। यह मनुष्य की साधना का अन्तिम फल है, जिसके प्राप्त होने पर आत्मा जीवन्मुक्त तथा अन्त में सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाता है।५। पतञ्जलि ने निरोध करने योग्य वृत्तियों की चर्चा करते हुए प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति का विवेचन किया है। प्रमाण इन वृत्तियों में प्रथम है। पतञ्जलि ने प्रमाण तीन माने हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम। इन प्रमाणों से प्राप्त ज्ञान की कोटियाँ जैनदर्शन की मान्यता से अविरुद्ध हैं। ऋतम्भराप्रज्ञा के सन्दर्भ में पतञ्जलि ने इन तीन प्रमाणों के आधार पर श्रुतप्रज्ञा और अनुमानप्रज्ञा, इस प्रकार द्विविध प्रज्ञा की उपलब्धि का उल्लेख किया है। ऋतम्भराप्रज्ञा इन दोनों प्रज्ञाओं से भिन्न है। वह भेद विषयमूलक है। अर्थात् श्रुतप्रज्ञा एवं अनुमानप्रज्ञा का विषय कुछ और होता है तथा ऋतम्भराप्रज्ञा का कुछ और। । कहा जाता है कि जब योगी का चित्त दिनभर के लिए लय होने लगता है तब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उसके ज्ञान का विषय बन जाता है। छ: रात्रिपर्यन्त अमनस्कता सिद्ध होने पर सम्पूर्ण भूतकालिक ज्ञान और सात रात्रि पर्यन्त अमनस्कता सिद्ध होने पर विश्ववेतृता सिद्ध होती है, जिसे केवलज्ञान की जैन अवधारणा के समानान्तर रखा जा सकता है। पतञ्जलि द्वारा निर्दिष्ट ऋतम्भराप्रज्ञा के समानान्तर जैनदर्शन के अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान में से ठीक-ठीक किस ज्ञान को रखा जाए, यह कहना कठिन है, तथापि केवलज्ञान को उसकी सीमा में ही समाहित किया जा सकता है। मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान अनुमानप्रज्ञा और श्रुतप्रज्ञा में अन्तर्गर्भित हो जाते हैं। ज्ञेय वस्तु : ज्ञेय वस्तु का अर्थ है - जिसे जाना जाए। जैन आचार्यों ने सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों को सामान्य ا * تمر १. रूपिष्यवधेः। - तत्त्वार्थसूत्र, १/२८ २. विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्योऽवधिमनःपर्याययोः। - वही, १/२६ (क) मोक्षक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्य केवलम्। - तत्त्वार्थसूत्र, १०/१ (ख) अशेषद्रव्यपर्यायविषयं विश्वलोचनम् । अनन्तमेकमत्यक्षं केवलं कीर्तितं जिनैः ।।- ज्ञानार्णव,७/८ सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य। - तत्त्वार्थसूत्र, १/३० उत्तराध्ययनसूत्र, २६/७१,७२ प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः । - पातञ्जलयोगसूत्र. १/६ प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि । - वही, १/७ श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्यात् । - वही, १/४६ व्यासभाष्य, पृ० १५३ १०. अमनस्कयोग, ६२ ११. वही, ६६, ७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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