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पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन
अर्थ : सम्यग्ज्ञान का अर्थ है - सम्यग्दर्शन अर्थात् सम्यक श्रद्धापूर्वक जीवाजीवादि नवतत्त्वविषयक यथार्थ ज्ञान। सांसारिक पदार्थों के सम्यग्दृष्टि रहित ज्ञान को इस कारण मिथ्याज्ञान कहा गया है क्योंकि वह जीव को विषयभोगों की ओर आकृष्ट करता है और वह मुक्ति की अपेक्षा बंधन का कारण बनता है। आत्माभिमुख होने के लिए आत्मबोध होना आवश्यक है। उस आत्मतत्त्व को अथवा वास्तविक कल्याण-साधन के मार्ग को पहचानना सम्यग्ज्ञान है। इसलिए उपा० यशोविजय ने कहा है कि मोक्ष के हेतुभूत एक पद का ज्ञान भी श्रेष्ठ है, जबकि मोक्ष की साधना में अनुपयोगी विस्तृत ज्ञान भी व्यर्थ है।
ज्ञान के प्रकार : सम्यग्ज्ञान की चर्चा प्रारम्भ होते ही ज्ञान के स्वरूप, उसके साधन और उसके विषय की ओर हमारा ध्यान अनायास चला जाता है। इन तीनों दृष्टियों से ज्ञान के अनेक भेद प्रतीत होते हैं। सामान्य रूप से जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष, दो भेद हैं। भारतीय दर्शन में साधारणतया इन्द्रियों द्वारा होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष माना जाता है परन्तु जैनदर्शन के अनुसार इन्द्रियों और मन की सहायता की अपेक्षा के बिना साक्षात् आत्मा से ही जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष कहलाता है। इसके विपरीत इन्द्रिय और मन आदि की सहायता से बाह्य एवं आभ्यन्तर विषयों का जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष है। लौकिक प्रत्यक्ष का समावेश प्रत्यक्ष में करने की दृष्टि से प्रत्यक्ष के पुनः सांव्यवहारिक. (इन्द्रिय) प्रत्यक्ष तथा पारमार्थिक (आत्म) प्रत्यक्ष, ये दो भेद भी किए गए है।
जैनदर्शन में अन्य प्रकार से भी ज्ञान के भेद किये गये हैं। यथा - मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल। इनमें से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को 'परोक्ष तथा अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान को 'प्रत्यक्ष माना गया है। मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध पर्यायवाचक शब्द हैं।" पांचों इन्द्रियों तथा मन से होने वाला ज्ञान 'मतिज्ञान' कहलाता है ।१३ मतिज्ञान के पश्चात् शास्त्रादि के आधार पर चिन्तन-मनन के द्वारा जो ज्ञान होता है, वह 'श्रुतज्ञान' है। इन्द्रियजन्य और मनोजन्य होने पर भी मतिज्ञान में शब्दोल्लेख नहीं होता, जबकि श्रुतज्ञान में शब्दोल्लेख होता है। यद्यपि दोनों में इन्द्रिय और मन की अपेक्षा समान
है, तथापि मति की अपेक्षा श्रत का विषय अधिक विस्तत है और उसमें स्पष्टता भी अधिक है क्योंकि श्रुतज्ञान में मनोव्यापार की प्रधानता होने से शब्द और अर्थ की पर्यालोचना रहती है तथा पूर्वापर क्रम भी बना रहता है। इसीलिए कहा गया है कि अन्य से श्रवण कर या ग्रंथ आदि पढ़कर जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह 'श्रुतज्ञान' है।३ श्रुतज्ञान अवग्रहादि मतिपूर्वक होता है। जिस ज्ञान से इन्द्रियों की सहायता के बिना ही एक निश्चित सीमा के भीतर अर्थात् मर्यादापूर्वक रूपी पदार्थों को जाना जा सके, वह
१. (क) नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य रुदहे । - उत्तराध्ययनसूत्र, २८/३५
(ख) पज्जवाण य सव्वेसिं, नाणं नाणीहि देसियं ।। - वही, २८/५ मुनि न्यायविजय, जैनदर्शन, पृ०४ ज्ञानसार, ५/२ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, १/१२ अतीन्द्रियत्वात्। - वही निमित्तापेक्षत्वात्। - वही प्रत्यक्ष द्विविधम्- सांव्यवहारिकम, पारमार्थिक चेति । - जैनतर्कभाषा, पृ०२ तत्त्वार्थसूत्र, १/६; ज्ञानार्णव, १/३ तत्त्वार्थसूत्र, १/११ वही, १/१२
मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ।- वही, १/१३ १२. तदिन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तम् |- वही, १/१४ १३. विशेषावश्यकभाष्य, १००, १२१ ।। १४. श्रुतं मतिपूर्व ..... | - तत्त्वार्थसूत्र १/२०
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