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________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन और विशेष, दो वर्गों में विभाजित किया है।' उन्होंने ज्ञेय के लिए कहीं प्रमेय शब्द का और कहीं द्रव्य शब्द का प्रयोग किया है ।२ 134 जैनदर्शन में सत् और द्रव्य में कोई भेद नहीं माना गया है अर्थात् सत्ता सभी द्रव्यों में विद्यमान रहती है।' जैन आचार्यों ने द्रव्य को स्वयं सत्ता स्वरूप माना है, अर्थात् सत्ता रूप परमतत्त्व द्रव्य, गुण और पर्याय तीनों में रहता है। अतः वे सत्ता (द्रव्य) के ही विस्तार हैं। इस कथन के अनुसार परमतत्त्व द्रव्य के तीन स्थूल भेद किए जा सकते हैं द्रव्य (स्थूल द्रव्य) गुण और पर्याय दृष्टिभेद से अनेक बार द्रव्य और सत्ता में प्रदेशभेद न मानकर गुण-गुणीभेद दर्शाया गया है। इस प्रकार सत्ता द्रव्य का अभिन्न लक्षण है। तथापि गुण गुणी रूप से सत्ता व द्रव्य में कथंचित् भेद भी है। द्रव्य का स्वरूप सत्ता के स्वरूप से भिन्न है। सत्ता गुण है और द्रव्य गुणी है। द्रव्य के बिना गुण नहीं रह सकते और गुण के बिना द्रव्य का स्वरूप सिद्ध नहीं होता । अतः द्रव्य स्वयं ही सत्ता स्वरूप है। | चूँकि द्रव्य अपने स्वभाव में नित्य अवस्थित रहता है इसलिए द्रव्य सत् है।" और सत् उत्पाद-व्ययधौव्यात्मक है।" इसलिए जैनाचार्यों ने द्रव्य का लक्षण उत्पाद व्यय ध्रौव्य किया है ये तीनों परस्पर अविनाभावी हैं। व्यय अथवा विनाश के बिना उत्पाद नहीं होता, उत्पाद के बिना व्यय नहीं होता, धौव्य के बिना उत्पाद व्यय नहीं होते और न उत्पाद-व्यय के बिना ध्रौव्य रहता है ।१२ उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य द्रव्य का परिणाम हैं। द्रव्य का स्वयं उत्पाद अथवा विनाश नहीं होता है। पर्याय की अपेक्षा ही द्रव्य उत्पाद व्यय रूप होता है।" उत्पाद एवं विनाश द्रव्य में रहने वाली पर्यायों का होता है।" इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जो अपने मूल स्वभाव को छोड़े बिना उन गुणों का आधार होता है, जिसकी पर्याय उत्पन्न होती है और नष्ट हो जाती है, उसे द्रव्य कहते हैं। इस प्रकार द्रव्य में उत्पत्ति, स्थिति और विनाश तीनों की सत्ता रहती है। १६ उदाहरणार्थ जैसे घटादि पदार्थ नवीनता को छोड़कर दूसरे भाव को स्वीकार करते हैं फिर भी उनका मूलभाव यानि मौलिक अस्तित्व खंडित नहीं होता। जैनदर्शन के अनुसार पूर्व पर्याय को छोड़कर जो नवीन पर्याय उत्पन्न होती है, उसका नाम 'उत्पाद' और पूर्व पर्याय के विनाश का नाम 'व्यय' है। इन दोनों के साथ-साथ वस्तु में जो अनादि स्वाभाविक परिणाम सदा रहता है उसे धौव्य कहा जाता है।" उदाहरणार्थ सुवर्णमय गहनों को तोड़कर नए-नए आकार के गहनों का निर्माण कराने से उनके आकार तो भिन्न हो जाते हैं पर उनकी स्वर्णरूपता (पीतादि गुण) सदा विद्यमान रहती १. २. ३. ४. ५. ६. ७. वही. २/६, १३ वही, २/१५ वही, २/१६ वही, २/१७ पंचास्तिकाय, १३ - ज्ञेयं हि वस्तु सामान्य विशेषात्मकमत्र यत् । - प्रवचनसार, १ / ३६ इह विविहलक्खणाणं लक्खणमेगं सदिति सव्वगयं । — ८. ६. प्रवचनसार, २/१८ १०. तत्त्वार्थसूत्र ५ / २६: प्रवचनसार, २/६ ११. तत्त्वार्थसूत्र ५/३०: प्रवचनसार, २/७ अनेकान्तव्यवस्थाप्रकरण, पृ० ८३ प्रवचनसार, १/१८ १३. १४. वही, २/११ १५. वही, १/१८ १६. योगबिन्दु, ५०१: प्रवचनसार, २/३ १७. प्रवचनसार, २/८ Jain Education International • आचारसार, ४ / ३ वही, २/५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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