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________________ 120 होना) धारण करना' अपेक्षित होता है। प्रत्येक जैन के लिए यह एक आवश्यक विधान है। पातञ्जलयोग सम्मत समाधि (चित्त की एकाग्रता) और जैन- परम्परा में स्वीकृत सामायिक चारित्र, इन दोनों की परस्पर समानता स्वतः स्पष्ट है । योगाधिकारी की प्राथमिक व अनिवार्य योग्यता योग- परम्परा में सर्वप्रथम आ० हरिभद्र को अनुभव हुई और उन्होंने अपने सभी ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न प्रकार से इसे समझाने का प्रयास किया। आ० शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव चूंकि सामान्य व्यक्ति के लिए न होकर, उच्च स्तर के साधक अर्थात् मुनि (जो स्वतः योगाधिकारी की योग्यता से सम्पन्न होता है) के लिए है, इसलिए उन्हें इसका विवेचन करने की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई । आ० हेमचन्द्र एवं उपा० यशोविजय ने उसकी उपयोगिता समझकर, अपने पूर्ववर्ती आ० हरिभद्र का अनुसरण किया । आ० हरिभद्र की एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने जैनेतर परम्परा में प्रचलित चान्द्रायणादि व्रतों को भी योग की पूर्वभूमिका में स्थान दिया और अपने इस उदार दृष्टिकोण से योग को सम्यग्दर्शन की सीमित परिभाषा से ऊपर उठाकर योग-साधना के प्रति एक गहन आदरभाव का निर्माण किया । अर्धमागधी आगमों में सिद्धों के १५ भेद बताए गये हैं। जिनमें अन्यलिंगसिद्ध (जैनमुनि का वेशधारण न करके अन्य वेश से सिद्ध होने वाले) भी एक भेद है। वहाँ स्पष्ट रूप से यह मान लिया गया है कि जैनेतर मार्ग से साधना करके भी सिद्धता (मुक्ति) प्राप्त हो सकती है। आगमिक चिन्तन की यह उदारता निश्चय ही आ० हरिभद्र की भावभूमि में रही होगी । योगी के विविध प्रकारों के निरूपण में भी दोनों परम्पराओं में साधना मार्ग में प्राप्त उपलब्धि के तारतम्य को आधार माना गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि आ० हरिभद्र ने पातञ्जलयोगसूत्र में वर्णित चतुर्विध योगियों के निरूपण से प्रभावित होकर ही अपने योगग्रन्थों में चार प्रकार के योगियों का विवेचन किया है । परन्तु यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आ० हरिभद्र ने योगियों की परिभाषा की जो संघटना की है वह बिल्कुल नवीन है। हाँ, कुलयोगी की हारिभद्रीय अवधारणा पर, पातञ्जलयोग सम्मत भवप्रत्यययोगी की अवधारणा का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है। पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन भावों की प्रशस्तता और अप्रशस्तता के आधार पर आ० हरिभद्र द्वारा किया गया भिन्न-भिन्न अनुष्ठानों का विवेचन भी कई दृष्टियों से विशिष्ट है। उन्होंने योग सम्बन्धी भिन्न-भिन्न अनुष्ठानों का जिस विस्तार से निरूपण किया है, वैसा अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं होता और न ही वे किसी सम्प्रदाय विशेष से बंधे हुए प्रतीत होते हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पातञ्जलयोग परम्परा से अनेक समानताओं एवं विषमताओं के होने पर भी जैन परम्परा का अपना वैशिष्ट्य सुरक्षित रहा है। १. गोम्मटसार, (जीवकाण्ड), ३६८ पर टीका २. गृहस्थ और मुनि के लिए निर्धारित षडावश्यकों में सामायिक का परिगणन किया गया है। द्रष्टव्य : अनुयोगद्वार (व्यावर संस्करण) ७४-७५ ३. द्रष्टव्य : नंदीसूत्र २१ स्थानांगसूत्र, १/२१४-२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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