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________________ चतुर्थ अध्याय योग और आचार दर्शनशास्त्र के दो पक्ष हैं - सैद्धान्तिक और व्यवहारिक। अतः योगदर्शन जहाँ योग के सैद्धान्तिक पक्ष का निरूपण करता है, वहाँ इसका सम्बन्ध ज्ञान के अनुभवात्मक अनुष्ठान अर्थात् व्यवहारिक पक्ष से भी है। सिद्धान्त पक्ष को 'विचार' और व्यवहार पक्ष को 'आचार' कहा जाता है। आध्यात्मिक साधना दार्शनिक सिद्धान्तों पर प्रतिष्ठित है, क्योंकि विचार प्रथम है, अतः उस विचार की परिणति के लिए आचार अपेक्षित है। विचार को आचरण में लाए बिना प्राप्य, अप्राप्य बन जाता है। जहाँ आचार के लिए श्रद्धा अपेक्षित है, वहाँ विचार के लिए तर्क की आवश्यकता है। दोनों के संतुलित विकास से ही व्यक्तित्व का विकास संभव है। आचार और विचार की एक अविच्छिन्न श्रृंखला है। इसलिए भारतीय चिन्तकों ने धर्म और दर्शन अर्थात् आचार और विचार का युगपत् प्रतिपादन किया है। अनेक आधुनिक चिन्तक दर्शन और आचार (साधनपक्ष) को पृथक्-पृथक् रखने का प्रयत्न करते हैं, तथा आचार और दर्शन को असम्पृक्त सिद्ध करने का प्रयत्न भी किया गया है, विशेषकर तर्कशास्त्र के क्षेत्र में। तर्कशास्त्र की उपलब्धियों को जीवनसाधना के रूप में उतारने की कल्पना न किया जाना स्वाभाविक भी है। सम्भवतः इसी कारण दर्शन और आचार (साधनपक्ष) को अलग-अलग देखने की प्रवृत्ति दार्शनिक जगत् में प्रचलित हो गई है। किन्तु जैनदर्शन अथवा योगदर्शन के अध्येता के लिए दर्शन और आचार को पृथक्-पृथक् करना सहज प्रतीत नहीं होता। फलतः यदि यह कहा जाए कि जैनदर्शन और योगदर्शन मूलतः आचार-प्रधान दर्शन हैं, तो अनुचित न होगा। पातञ्जलयोग एवं जैनयोग-परम्परा में आचार को प्रधानता देने के साथ-साथ विविध दार्शनिक विषयों का आचार के साथ सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास भी किया गया है। अ. पातञ्जलयोग और आचार पातञ्जलयोगसूत्र में कैवल्य प्राप्ति के लिए अभ्यास और वैराग्य', क्रियायोग (तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान) और अष्टांगयोग' का प्रतिपादन है तथा कैवल्य के रूप में पुरुषार्थ-शून्य गुणों के प्रतिप्रसव की कल्पना की गई है। १. अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः। - पातञ्जलयोगसूत्र, १/१२ २. तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः । - वही, २/१ ३. योगांगानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः। यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावंगानि। - वही. २/२८.२६ ४. पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति। - वही, ४/३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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