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योग के अधिकारी, प्राथमिक योग्यता एवं आवश्यक निर्देश
इस प्रकार पातञ्जल एवं जैन दोनों योग-परम्पराओं में कुछ विषयों को छोड़कर सामान्यतः एकरूपता ही दृष्टिगोचर होती है। दोनों में समान रूप से मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्मभूमि एवं मनुष्ययोनि में उत्पन्न होना अनिवार्य बताया गया है। जहाँ पातञ्जलयोग-परम्परा स्पष्ट रूप से यह घोषणा करती है कि योगसाधना सभी मनुष्यों का धर्म है, वहाँ जैन परम्परा भी मोक्ष मार्ग और उसकी साधना को सभी मनुष्यों के लिए समान रूप से उपयोगी घोषित करती है, परन्तु वहाँ मोक्ष की प्राप्ति का अधिकार केवल भव्यजीवों को ही प्रदान किया गया है, अभव्यजीवों को नहीं । वस्तुतः जैन परम्परा में भव्यत्व और अभव्यत्व की कल्पना मनुष्य की स्वभावसिद्ध योग्यता को देखकर ही की गई है। जैसे मूँग में कोई दाना ऐसा होता है, जिसे 'कोरडु' कहते हैं, इस 'कोरडु' का ऐसा स्वभाव है कि चाहे जितना भी प्रयत्न कर लिया जाए, परन्तु वह पकता नहीं है, इसी प्रकार जो अभव्यजीव होता है, उसमें मुक्त होने योग्य परिणामों की सम्भावना नहीं होती। यह जैनों का अपना सिद्धान्त है, जो अन्य परम्पराओं की अपेक्षा विशिष्ट है।
योगबिन्दु आदि ग्रन्थों में चरमावर्ती और अचरमावर्ती जीवों के रूप में योग के अधिकारियों एवं अधिकारियों के विषय में जो चर्चा है, वह जैन- परम्परा के चिरन्तन सिद्धान्तों पर आधारित होने पर भी विशिष्ट है। इस विचार के माध्यम से आ० हरिभद्र ने पाठकों को कर्मग्रन्थों के चरमपुद्गलावर्त जैसे पारिभाषिक शब्दों का परिचय कराने का प्रयत्न किया है ।
आ० हरिभद्र ने चरमावर्ती जीवों के रूप में जो योगाधिकारियों के लक्षण बताए हैं, लगभग वैसा वर्णन व्यासभाष्य में भी देखने को मिलता है, जहाँ मोक्ष मार्ग की चर्चा के श्रवण मात्र से शरीर में होने वाले रोमांच एवं आनन्दानुपात को योगाधिकारी का अनुमापक चिह्न बताया गया है। परन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि जैन - परम्परा का विवेचन अपेक्षाकृत अधिक मनोवैज्ञानिक है एवं कर्मों की तरतमता पर आधारित है।
योगाधिकारियों के भेदों के विषय में पातञ्जलयोग एवं जैनयोग दोनों की दृष्टि समान है। साधना-क्रम में क्रमिक प्रगति व आपेक्षिक तरतमता के अनुसार हरिभद्र ने अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि और चारित्री के भेद से योग के अधिकारियों का जो विभाजन किया है वह पातञ्जलयोग के अधम, मध्यम एवं उत्तम श्रेणियों में किए गये विभाजन के अनुरूप है, तथापि उनके लक्षण एवं स्वरूप के विवेचन में मौलिकता है।
योगाधिकारी की प्राथमिक व अनिवार्य योग्यता के सम्बन्ध में पतञ्जलि प्रायः मौन हैं। असम्प्रज्ञातसमाधि की चर्चा करते हुए उन्होंने केवल उपायप्रत्यय अधिकारी के लिए ही श्रद्धादि गुण अपेक्षित बताए हैं । सामान्य अधिकारी के विषय में उन्होंने कोई चर्चा नहीं की । पतञ्जलि ने उपायप्रत्यय साधक के लिए श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा आदि जो गुण अपेक्षित बताए हैं, उनकी समानता जैन साधना-मार्ग के सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान) के साथ सहज की जा सकती है। जैनशास्त्रों में सम्यग्दर्शन के जो प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य रूप लक्षण इंगित किये गये हैं, इनमें आस्तिक्य और संवेग योगदर्शन सम्मत श्रद्धा, वीर्य और स्मृति से साम्य रखते हैं। जैन - परम्परा सम्मत सम्यग्ज्ञान योगसम्मत प्रज्ञा का प्रतिनिधित्व करता है। जैनशास्त्रों में सम्यक्चारित्र का प्रथम सोपान सामायिक माना गया है और गृहस्थ व मुनि दोनों के लिए सामायिक की अनिवार्यता वर्णित की गई है। 'सामायिक' में साधक को प्रतिदिन नियतकाल तक समताभाव ( अन्य पदार्थों से मन को हटाकर शुद्ध आत्मसाधना की ओर उन्मुख
भोजवृत्ति, पृ० ३
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स च निरोधः सर्वासां चित्तभूमीनां सर्वप्राणिनां धर्मः कदाचित् कस्याञ्चिद् भूभौ आविर्भवति । - (क) उच्चावचजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनाम् ।
नैकस्मिन्पुरुषे तिष्ठेदेकस्तम्भ इवालयः ।। - यशस्तिलकचम्पू, ८ / ३६५
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(ख) उपासकाध्ययन, ४३/८२२
(ग) हरिवंशपुराण, ५८ / ३
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