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________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन होकर दोनों के लिए गुणकारी तथा परिमित मात्रा में ही होनी चाहिए ताकि उससे भूख-प्यास जैसी अनिवार्य शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। 118 (ङ) गुरु की आवश्यकता 1 योग-साधना के सन्दर्भ में जैन-जैनेतर सभी ग्रन्थों में गुरु के सान्निध्य की आवश्यकता पर बल दिया गया है, क्योंकि योग्य गुरु के निर्देशन के बिना योग के व्यवहारिकपक्ष को जानना कठिन है केवल शास्त्रों का अध्ययन कर यौगिक क्रियाओं का अभ्यास करने से लाभ की अपेक्षा हानि होती है। शास्त्र तो केवल योग के अंगों, तथा उसके उपायों का सैद्धान्तिक ज्ञान कराते हैं, परन्तु योग के व्यवहारिकपक्ष को जानने के लिए योग्य गुरु का सान्निध्य अपेक्षित होता है। योग के प्रमुख अंग आसन, प्राणायाम और ध्यान की यथार्थ विधि योग्य गुरु के निर्देशन के बिना नहीं जानी जा सकती। आसन, प्राणायाम और ध्यान का गलत अथवा असावधानीपूर्वक अभ्यास करने से कई प्रकार के शारीरिक व मानसिक रोग हो जाते हैं जिनका चिकित्सा द्वारा उपचार असम्भव होता है। यद्यपि महर्षि पतञ्जलि ने शाब्दिक रूप से गुरु के सम्बन्ध कुछ नहीं कहा तथापि गुरु के रूप में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करके गुरु का महत्त्व और आदर स्थापित किया है। में जैन-परम्परा में भी आ० हरिभद्र, आ० शुभचन्द्र आ० हेमचन्द्र एवं उपा० यशोविजय प्रभृति प्रमुख जैनाचार्यों ने गुरु की आवश्यकता को अनुभव करके साधक को गुरु के सान्निध्य में रहने का उपदेश दिया है। उक्त सभी जैनाचार्यों ने स्वयं योग्य गुरु के सान्निध्य में रहकर योग मार्ग का अनुभव प्राप्त किया था। उसी के अनुसार उन्होंने साधक को गुरु के पास रहकर योग-मार्ग का ज्ञान प्राप्त करने का उपदेश दिया और गुरु के लिए भी यह आवश्यक बतलाया कि वह साधक की प्रकृति योग्यता, रुचि एवम् स्थिति को जानकर योग के व्यवहारमार्ग का निर्देशन करे। जो साधक योग साधना की उत्तरोत्तर वृद्धि के क्रम में गुरु की आज्ञा के बिना तथा अपने अधिकार व योग्यता को जाने बिना अभ्यास करता है, वह आगे चलकर अपने स्थान से च्युत हो जाता है। इसके अतिरिक्त योग की कुछ क्रियाएँ जैसे - आसन, मुद्रा, प्राणायाम और ध्यान भी गुरु-शिक्षण की विशेष अपेक्षा रखते हैं। अतः योग-शिक्षा के लिए गुरु का सदा पास रहना आवश्यक है। शास्त्रों में गुरु को अज्ञान रूपी अंधकार का नाशक बताया गया है। जैनाचार्यों ने भी गुरु की महिमा का गुणगान करते हुए, उसे ऐहिक सुख तथा पारलौकिक सुख, दोनों दृष्टियों से हितकर बताया है।" १. २. ३. ४. ५. ६. ७. वणलेवो धम्मेणं उचियत्तं तग्गयं निओगेण । एत्थं अवेक्खियव्वं इहराऽजोगो ति दोराफलो 11- योगशतक, ८२ () Practise yoga only after learning the techniques thoroughly from a competent teacher (Guru). If you start taking them wrongly without being properly trained, it will be difficult to correct them later. If not properly practised, the mind gets disturbed and a feeling of uneasiness results. It is therefore, all the more necessary to learn yoga practices under the strict eye of an able preceptor. - - Text Book of Yoga, p. 9 (ख) हठयोगप्रदीपिका, २/१६, १७ पातञ्जलयोगसूत्र २६ योगशतक, ६१; ज्ञानार्णव, २०/११ योगशास्त्र १/४, १२ / ५५ अध्यात्मसार, १/१/७ गुरुणा लिंगेहिं तओ एएसिं भूमिगं मुणेऊण । योगशतक, २४ उवएसो दायव्वो जहोचियं ओसहाऽऽहरणा ।। अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानान्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।। - श्रीनारदीय महापुराण, २३/२०: तुलना : आदिपुराण ६/१७३, १७६ योगशतक १२ गुरुतत्त्वविनिश्चय १/२-१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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