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योग के अधिकारी, प्राथमिक योग्यता एवं आवश्यक निर्देश
में उपकारक उचित सेवा रूप क्रियायोग के अभ्यास करने का भी उपदेश दिया है।' व्रतों के संबंध में उन्होंने मैत्री आदि भावनाओं पर अधिक भार दिया है। इस प्रकार आ० हरिभद्र ने निवृत्ति और प्रवृत्ति धर्म का समन्वित लोकोपकारी रूप प्रस्तुत किया है।
सर्वविरत साधु के लिए जिन आचारों का विधान किया गया है, वे हैं
गुरु के अधीन रहकर गुरुकुल
में निवास, यथोचित विनयधर्म का पालन, नियतकाल में अपने स्थान के परिमार्जन में प्रयत्नशीलता, अपना बल छिपाए बिना सभी कार्यों में शान्तिपूर्वक प्रवृत्ति, आत्मकल्याणपूर्वक गुरु के वचनों का पालन, निर्दोष भाव से संयम का पालन, विशुद्ध भिक्षावृत्ति से जीवन-निर्वाह, शास्त्र-विधि के अनुसार स्वाध्याय तथा मृत्यु जैसे संकटों का सामना करने में समुद्यत रहना आदि हैं।
यही नहीं, आ० हरिभद्र ने अभिनव साधक के लिए आचरण करने योग्य विधि का निरूपण भी किया है। उनका मत है कि अभिनव साधक को पहले श्रुतपाठ, गुरुसेवा, आगम-आज्ञा जैसे स्थूल साधनों के अभ्यास में रत रहना चाहिये। शास्त्र के अर्थ का अवबोध हो जाने पर साधक को राग-द्वेषादि आन्तरिक दोषों को निकालने के लिए सूक्ष्मतापूर्वक आत्म-अवलोकन करना चाहिये। इसके अतिरिक्त चित्त में स्थिरता लाने हेतु साधक को रागादि दोषों के विषय एवं परिणामों का चिन्तन करने की विधि भी बताई गई है। आ० हरिभद्र के अनुसार योगाभ्यासी को उपरोक्त क्रमानुसार अभ्यासानुकूल आचरणीय विधिविधान का पालन करना चाहिये । समुचित क्रम के विपरीत आचरण करने से साधना में सामञ्जस्य नहीं रह पाता । आ० हरिभद्र द्वारा योग सम्बन्धी अनुष्ठानों का जिस विस्तार से निरूपण किया गया है, वैसा पूर्ववर्ती ग्रन्थों में प्राप्त नहीं होता। उक्त सभी अनुष्ठान किसी सम्प्रदाय / धर्म विशेष से बन्धे हुए प्रतीत नहीं होते ।
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(घ) आहार-निर्देश
योगाभ्यासी को योग-साधनों के अभ्यास के साथ-साथ आहार पर भी विशेष ध्यान देना चाहिये। आहार का मन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। इसलिए आ० हरिभद्र ने आहार की चर्चा के सम्बन्ध में सर्वसंपत्करी भिक्षा का विधान किया है। सर्वसम्पत्करी भिक्षा का भाव यह है कि वह भिक्षा साधक के वर्तमान और भावी जीवन को श्रेय की ओर ले जाने वाली हो अर्थात् उसके जीवन को आध्यात्मिक दृष्टि से ऊर्ध्वगामी बनाने वाली हो। इसी प्रकार वह भिक्षा देने वाले और लेने वाले दोनों में से किसी में भी दोषकारक न
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C.
सद्धम्माणुवरोंहा वित्ती दाणं च तेण सुविसुद्ध ।
जिणपुय भोयणविही संझाणियमो य जोगंतो ।। - योगशतक, ३०
चिइवंदण जइविस्सामणा य सवणं च धम्मविसयं ति ।
गिहिणो इमो वि जोगो, किं पुण जो भावणामग्गो । । - वही, ३१
अणिगूहणा बलम्मी सव्वत्थ पवत्तणं पसंतीए ।
णियलाभचिंतणं सह अणुग्गहो मे त्ति गुरुवयणे ।। संवरणिच्छित्ते सुद्धछुज्जीवणं सुपरिसुद्धं । विहिसज्झाओ मरणादवेक्खणं जइजणुवएसो ।
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वही, ३४, ३५
वही, ५१, ५२
वही, ५७ -- ६०
वही, ७८- ७६
एसो चेवेत्थ कमो उधियपावित्तीए वन्निओ साहू । इहराऽसमंजसत्तं तहा तहांऽठाणविणिओगा ।। - वही, ८० साहारणो पुन विही सुक्काहारो इमस्स विण्णेओ । अण्णत्थओ य एसो उ सव्वसंपक्करी भिक्खा ।। - वही, ८१
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