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________________ 108 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन भिन्न-भिन्न पंथों के बीच देवों के नाम पर होने वाले कलह को कम करने का सर्वसमन्वय सूचक सही मार्ग लोगों के सामने उपस्थित किया है। ___ द्रव्य एवं भावभेद से पूजन दो प्रकार का होता है। अर्हत्-सिद्धादि को लक्ष्य बनाकर गन्ध, पुष्प, धूप और अक्षत आदि विशिष्ट वस्तुओं द्वारा उनकी प्रतिमाओं की पूजा करना द्रव्यपूजन है और भावपूर्वक मन में उनको स्थान देना भावपूजन है। अपना सर्वस्व देव को अर्पण करना और यथासामर्थ्य उनकी भक्ति करना, ये सब देवपूजन के अन्तर्गत आते हैं। धन का तीर्थादिक शुभ स्थान में व्यय, देव के लिए सुन्दर मन्दिर का निर्माण, बिम्ब-स्थापना आदि के रूप में देवपूजन किया जाता है। आ० हरिभद्र ने देवपूजन की उक्त विधियों पर भी प्रकाश डाला है। ___ योगदृष्टिसमुच्चय में कहा गया है कि जिन भगवान् के प्रति कुशल-शुभभाव युक्त चित्त से नमस्कार करना, मन, वचन और काय की पूर्ण शुद्धिपूर्वक उन्हें प्रणाम करके अपने भक्तिभाव को प्रकट करना, आचार्यादि भावयोगियों की पूजा करना; गुरु, देव, ब्राह्मण-विप्र, यति और तपस्वियों की तन्मयता एवं श्रद्धापूर्वक पूजा सम्मानादि करना 'योगबीज' है।' २. दान आ० हरिभद्र ने गुरुओं एवं देवों के प्रति भक्ति-भावना के अतिरिक्त, एक महत्वपूर्ण सामाजिक कर्तव्य 'दान' का भी निर्देश किया है। उनका कहना है कि रोगी, अनाथ, निर्धन आदि निस्सहाय वर्ग को सहायता के रूप में उनकी आवश्यकता की वस्तुएँ दान में देनी चाहियें। परन्तु दान देते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि अपने आश्रित जनों की उपेक्षा न होने पाये। अत्यन्त महत्वपर्ण है कि आ० हरिभद्र ने पण्य के लोभ में बिना विचारे दान देने को अनुचित बताकर, प्रत्येक व्यक्ति को अपने आश्रितों के प्रति किये जाने वाले कर्तव्य का आभास कराया है। योग के पूर्व उपायों में दान का उल्लेख इसलिए किया गया है, क्योंकि इससे त्यागधर्म की शुरुआत होती है। ३. सदाचार नीति के उत्तम नियमों का अनुसरण करना 'सदाचार' है। मोक्ष-मार्गदर्शक के रूप में यह अति उपयोगी है। हरिभद्र ने 'सदाचार' के अन्तर्गत अनेक गुणों का समावेश किया है। उनके अनुसार सब प्रकार की निन्दा का त्याग साधु पुरुषों का गुणगान, विपत्ति के समय भी दीनता अनंगीकार, सम्पत्ति होने पर भी निरभिमानता, समयानुकल एवं सत्यभाषण, वचनों का पालन, अशुभ कार्यों में धन और कुलक्रमागत धार्मिक कृत्यों का अनुसरण, प्रमाद का त्याग, लोकव्यवहार में उपयोगी और लोकसम्मत, नियमानुसार विनय, नमन, दान इत्यादि का परिपालन, निन्दनीय कार्यों में अप्रवृत्ति तथा प्राणनाश का १. (क) पुष्पैश्च बलिना चैव वस्त्रैः स्तोत्रैश्च शोमनैः । देवानां पूजनं ज्ञेयं शौचश्रद्धासमन्वितम् ।।-योगबिन्दु, ११६ (ख) देवानां पूजनं ज्ञेयं शौचश्रद्धादिपूर्वकम् । पुष्पैर्विलेपनै—पैनैवेद्यैः शोभनैः स्तवैः ।। - द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १२/६ योगदृष्टिसमुच्चय, २२-२३, २६ वही, १५१ (क) पात्रे दीनादिवर्गे च दानं विधिवदिष्यते । पोष्यवर्गाविरोधेन न विरुद्धं स्वतश्च यत् ।। - योगबिन्दु, १२१ आतुरापथ्यतुल्यं यदानं तदपि चेष्यते । पात्रे दीनादिवर्गे च पोष्यवर्गाविरोधतः ।। - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १२/११ (ग) योगदृष्टिसमुच्चय, २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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