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________________ योग के अधिकारी, प्राथमिक योग्यता एवं आवश्यक निर्देश 107 हृदयस्थ अज्ञान-अंधकार को समाप्त करके उसे ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर दे। दूसरे शब्दों में मन में अज्ञान, अविवेक, हिंसा, असत्य, स्तेय, मैथुन और परिग्रह आदि दोषों के अन्धकार को विनष्ट करने वाला महापुरुष 'गुरु' कहलाता है। वृद्ध पुरुषों की सेवा तथा उनका आदर करने से भी मार्ग दर्शकता प्राप्त होती है। गुणवान् की संगति से, उनके संपर्क से और उनकी पर्युपासना से गुणों की पहचान होती है। गुणों के प्रति राग होता है और उन्हें प्राप्त करने की इच्छा होती है। साधक अपनी इस इच्छापूर्ति हेतु प्रयास करता है, शुभाचरण करता है। इसके अतिरिक्त माता-पिता आदि भी मार्गदर्शक होते हैं। सबसे पहले माता-पिता ही बच्चों को अच्छे-बुरे कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान कराते हैं। उन्हें सदा शुभ मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। उनके इस उपकार का ऋण किसी भी प्रकार नहीं चुकाया जा सकता। आ० हरिभद्र ने माता-पिता की भी गुरुवद सेवा, पूजा व आदर-सत्कार करने का उपदेश दिया है। वे कहते हैं कि जिस कार्य से माता-पिता, कलाचार्य उनके संबंधी, शिक्षक, वृद्ध एवं धर्मोपदेशक आदि का अनिष्ट हो, उस कार्य का त्याग कर देना चाहिये तथा जिस में उनका हित हो, वैसी प्रवृत्ति करनी चाहिए, जिससे उनके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप पुरुषार्थ में बाधा या कष्ट न हो, ऐसे कार्य करने चाहिए। उनकी उचित प्रकार से मान-सम्मान-दान आदि से पूजा करनी चाहिये। उनकी वय, ज्ञान और उपकार के अनुरूप उनका मान करना चाहिये और उनके प्रति विनयभाव रखना चाहिए। देवपूजन के विषय में वे कहते हैं कि आध्यात्मिक व्यक्ति को यह ध्यान रखना चाहिये कि किसी देव विशेष में आस्था होने पर भी वह अन्यदेवों के प्रति द्वेष भाव न रखे। सभी देवों का समभाव से आदर करे। उनके अनुसार उत्तम गृहस्थ के लिए सभी देव माननीय हैं, ऐसा विचार करने से अपने मान्य देव से भिन्न दूसरे देवों के प्रति अरुचि अथवा हीनभावना दूर हो सकती है। ऐसी सर्वदेवनमस्कार की उदात्तवृत्ति अन्त में लाभदायक सिद्ध होती है, यह बताने के लिए ही उन्होंने चारिसंजीवनीन्याय कादृष्टांत भी दिया है। जिस प्रकार विशेष परीक्षा की योग्यता न होने के कारण सब वनस्पतियों के साथ संजीवनी बूटी चराकर, एक स्त्री ने अपने पति रूप बैल को पुनः मनुष्यत्व रूप प्राप्त कराया था, उसी प्रकार विशेष परीक्षाविकल प्रारम्भिक योगाधिकारी भी सब देवों की समभाव से उपासना करते-करते योग-मार्ग में विकास करके इष्ट लाभ कर सकता है। सम्भव है कि उक्त दृष्टान्त बहुत पुराना हो, परन्तु इसका विनियोग सर्वदेवों के प्रति समान आदर रखने के भाव से आ० हरिभद्र एवं उपा० यशोविजय जी ने १. अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।। - नारदपुराण १/६५/५६. तुलना : आदिपुराण, ६/१७३-१७७; योगशास्त्र, १२/१५--१६: पदमनन्दिपंचविंशति ६/१८; पाणिनीय शिक्षा, ५६ योगबिन्दु, १११-११५: द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका,१२/३-६ (क) गुणाधिक्यपरिज्ञानाद विशेषेऽप्येतदिष्यते। अद्वेषेण तदन्येषां, वृत्ताधिक्ये तथात्मनः ।। - योगबिन्दु, १२० ख) द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, १२/१० अविशेषेण सर्वेषामधिमुक्तिवशेन वा । गृहिणां माननीया यत्,सर्वे देवा महात्मनाम् ।। सर्वान् देवान् नमस्यन्ति, नैकं देवं समाश्रिताः । जितेन्द्रिया जितक्रोधा दुर्गाण्यतितरन्ति ते।। - योगदृष्टिसमुच्चय, ११७, ११८ एवं द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका, १५/७-८ (क) चारिसंजीवनीचारन्याय एष सतां मतः । नान्यथाऽत्रेष्टसिद्धिः स्याद्विशेषेणादिकर्मणाम || - योगबिन्दु, ११६ (ख) चारिसंजीवनीचारन्यायादेवं फलोदयः । मार्गप्रवेशरूपः स्याद्विशेषेणादिकर्मणाम् || - अध्यात्मोपनिषद, १/६६, द्वात्रिंशदवात्रिंशिका १२/६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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