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________________ 106 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन तैयारी के रूप में वर्णित हैं।' इस तैयारी को योगबिन्दु में पूर्वसेवा योगदृष्टिसमुच्चय में 'योगबीज तथा योगशतक में लौकिकधर्म'' के नाम से अभिहित किया गया है। पूर्वसेवा' में उक्त नियमों का व्यापक एवं स्पष्ट रूप से चित्रण है। 'योगबीज' एवं 'लौकिकधर्म' में उल्लिखित कर्त्तव्य कर्म भी पूर्वसेवा में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं। इसलिए उपा० यशोविजय ने भी 'पूर्वसेवा' की स्पष्टतर व्याख्या प्रस्तुत की है। __आ० शुभचन्द्र ने भी 'पूर्वसेवा' से सम्बद्ध विषयों का भिन्न-भिन्न प्रसंगों में विवेचन किया है, परन्तु उन्होंने पूर्वसेवा के स्थान पर 'वृद्धसेवा' पद को ग्रहण किया है। आ० हेमचन्द्र ने हरिभद्र से प्रभावित होकर गृहस्थ को विशेष महत्ता प्रदान की है, और गृहस्थ की भूमिका पर ही योगशास्त्र की रचना की है, क्योंकि राजा कुमारपाल गृहस्थ थे और हेमचन्द्र ने कुमारपाल के लिए ही उक्त ग्रन्थ की रचना की थी। उन्होंने सम्यग्दृष्टि साधक के लिए यह अर्हता प्राप्त करने से पूर्व अथवा प्राप्त कर लेने पर तथा अणुव्रतधर्म का भी पालन करने से पहले आरम्भिक तैयारी के रूप में कुछ नियमों का उल्लेख किया है जिन्हें, ‘मार्गानुसारी के गुण' कहा गया है। ये नियम यद्यपि संख्या में ३५ ही हैं, तथापि वे गृहस्थ जीवन के सभी पहलुओं का स्पर्श करते हैं। आ० हरिभद्रकृत धर्मबिन्दु में भी मार्गानुसारी के इन गुणों का विस्तृत विवेचन है। संक्षेप में इनका स्वरूप इस प्रकार है - (क) पूर्वसेवा ___ अध्यात्मयोग के लिए उपदिष्ट पूर्वभूमिका अर्थात् प्रथम सोपान 'पूर्वसेवा' है। गुरु देवादि पूज्यवर्ग की सेवा, दीनजनों को दान, सदाचार, तप और मक्ति के प्रति अद्वेष भाव को पर्वसेवा कहा गय में आ० हरिभद्र ने प्रथम अधिकारी अपुनर्बन्धक के लिए परपीड़ा-परिहार, देव, गुरु, अतिथि जैसे विशिष्ट पुरुषों की पूजा तथा दीनजनों को दान रूप लौकिकधर्मों का पालन आवश्यक बताया है। १. देवगुरुपूजन ___ आ० हरिभद्र के अनुसार अध्यात्मयोग-मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए उसकी तैयारी की दृष्टि से व्यक्ति का मानसिक संस्कार इस प्रकार का होना चाहिये कि वह गुरुवर्ग में केवल धर्मगुरु को ही अपना गुरु न माने, अपितु सब बुजुर्गों को गुरु समझकर, उनका भी आदर करे। ऐसे बुजुर्गों अर्थात् गुरुजनों में उन्होंने माता-पिता, कलाचार्य, ज्ञातिजन विप्र एवं वृद्धजनों आदि का समावेश किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि वे योग-मार्ग के शिक्षक के रूप में गुरु की आवश्यकता का अनुभव करते थे। गुरु वह है, जो मनुष्य के योगप्रासादप्रथभूमिकारूपा पुनः तन्त्रज्ञैः- सम्यगधिगतशास्त्रैः प्रकीर्तिता' इत्युत्तरेण योगः।- योगबिन्दु १०६ पर स्वो० वृ० २. योगबिन्दु, १०६-१४६ योगदृष्टिसमुच्चय, २२, २३, २७, २८ योगशतक, २५, २६ द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका में पूर्वसेवा नामक १२वी द्वात्रिंशिका ज्ञानार्णव, ४/६-१४ योगशास्त्र, १/४७-५७ धर्मबिन्दु, १/२ (क) पूर्वसेवा तु तन्त्रज्ञैर्गुरुदेवादिपूजनम् । सदाचारस्तपो मुक्त्यवेषश्चेह प्रकीर्तिता।। - योगबिन्दु, १०६ (ख) पूर्वसेवा तु योगस्य, गुरुदेवादिपूजनम् । सदाचारस्तपो मुक्त्यद्वेषश्चेह प्रकीर्तिता।। - द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका १२/१ १०. योगशतक, २५ ११. माता-पिता कलाचार्य एतेषां ज्ञातयस्तथा। वृद्धा धर्मोपदेष्टारो गुरुवर्गः सतां मतः ।।- योगबिन्दु, ११०, द्वात्रिंशदद्वात्रिंशिका १२/२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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