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________________ 96 पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन क्योंकि ऐसी स्थिति वाले जीव में अन्तर्मुखी प्रवृत्ति सम्भव नहीं होती। इतना ही नहीं, तीव्र अशुभ कर्मबन्ध वाले जीव के लिए मनुष्य योनि की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ कही गई है। ऐसे अपुनर्बन्धक जीव को प्रथम कोटि का योगाधिकारी माना गया है। अध्यात्म मार्ग में बढ़ते हुए जीव के प्रयत्न का यह प्रथम सोपान है। कहा गया है कि कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध न करने वाला अपुनर्बन्धक जीव ही मोक्ष-मार्ग का पथिक बनने के लिए प्रयत्न करता है, दूसरा कोई नहीं। आ० हरिभद्र के अनुसार जिसप्रकार वन में मार्ग भूले हुए पथिक को पगडण्डी बता दी जाए, तो वह सही स्थान पर पहुँच जाता है, उसीप्रकार प्रथम श्रेणी के साधक अपुर्नबन्धक को धर्म का लौकिक मार्ग बता देने से भी वह अध्यात्मयोग तक पहुँच जाता है। जिन जीवों की संसार में परिभ्रमण करने की स्थिति परिमित हो जाती है, ऐसे व्यक्ति 'चरमावर्ती'५ नाम से अभिहित हैं। अपुनर्बन्धक को 'शुक्लपाक्षिक' भी कहा गया है, क्योंकि इसमें मोहनीयकर्म के तीव्र भाव की कालिमा रूपी 'कृष्णपक्ष' का अन्धकार नष्ट हो जाता है और आत्मा के स्वाभाविक गुणों के आविर्भाव रूप शुक्लपक्ष का प्रकाश उदित होने लगता है। दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि में भी इसी तथ्य की पुष्टि की गई है। अपुनर्बन्धक या शुक्लपाक्षिक जीव की आत्मा संसार-समुद्र से निकलकर मुक्त होने के लिए तीव्रता से उत्कण्ठित रहती है, उसकी संसार में आसक्ति न्यून तथा धर्म-रुचि प्रगाढ़ हो जाती है। इस स्थिति में कर्मों की मन्दता के कारण जीव केवल दैव के वशीभूत ही नहीं होता, अपुित उसका पुरुषार्थ कर्मों की अपेक्षा अधिक प्रबल हो जाता है, और यहीं से जीव के ऊर्ध्ववर्ती विकास की यात्रा का प्रारम्भ समझना चाहिए। आध्यात्मिक विकास के १४ सोपान, जिन्हें 'गुणस्थान' कहा जाता है, उनमें साधक को मुख्य रूप से पांच पड़ाव पार करने होते हैं। पहला पड़ाव चं णस्थान है, जहाँ वह मिथ्यात्व पर विजय प्राप्त करता ॐ ज ६. उत्तराध्ययनसूत्र ३/७ पढमस्स लोकधम्मे परपीडावज्जणाइ ओहेणं। गुरुदेवातिहिपूयाइ दीणदाणाइ अहिगिच्च ।। - योगशतक, २५ स्याद्वादकल्पलता, पृ०६१ एवं चिय अवयारो जायइ मग्गम्मि हंदि एयस्स। रण्णे पहपभट्ठोऽवट्टाए वट्टमोयरइ ।। -योगशतक, २६ चरमावर्त में विद्यमान जीव 'चरमावर्ती' कहलाता है। 'चरमावर्त' अनादि संस्कार का सबसे छोटा व अन्तिम काल है। इसमें चरम और आवर्त दो शब्द हैं। चरम का अर्थ है अन्तिम और आवर्त का अर्थ है पुद्गलावर्त । जीव द्वारा ग्रहण किए जा सकने योग्य लोक में व्याप्त समस्त पुद्गलों का एक बार संस्पर्श और विसर्जन एक 'पुद्गलावर्त' कहलाता है। इस क्रम का अन्तिम आवर्त, जिसे भोगने के पश्चात् जीव को पुनः इस चक्र में नहीं आना पड़ता, 'चरमपुद्गलावर्त या चरमावर्त कहलाता है। (क) चरमे पुद्गलावर्ते यतो यः शुक्लपाक्षिकः । भिन्नग्रन्थिश्चरित्री च तस्येवैतदुदाहृतम् ।। - योगबिन्दु, ७२ (ख) योगदृष्टिसमुच्चय, २४ ७. कृष्णपक्षे परिक्षीणे, शुक्ले च समुदञ्चति। द्योतन्ते सकलाध्यक्षाः, पूर्णानन्दविधोः कला।। - ज्ञानसार, १/८ जेसिं अवढ्ढो पोग्गलपरियट्टो, सेसओ उ संसारो। ते सुक्कपक्खिआ खलु अहिगे पुण किण्हपक्खि त्ति ।। - दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि, ३० अपुनर्बन्धकादीनां भवाब्धौ चलितात्मनाम्। नासौ तथाविधा युक्ता वक्ष्यामो युक्तिमत्रतु ।। - योगबिन्दु ६८ १०. (क) पावं न तिव्वभावा कणइन बह मन्नई भवं घोरं। उचियट्टिइं च सेवई सब्वत्थ वि अपुणबंधो ति ।। - योगशतक १३ (ख) सो अपुणबंधगो जो णो पावं कुणइ तिव्वभावेणं। बहुमण्णइ णेव भवं सेवइ सव्वत्थ उचियठिई ।। - उपदेशरहस्य २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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