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योग के अधिकारी, प्राथमिक योग्यता एवं आवश्यक निर्देश
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है। छठे गुणस्थान में अविरति (अव्रत) पर, सातवें में प्रमाद पर, १२वें में कषाय पर, १४वें में योग (मन, वचन और काय की सक्रियता) पर विजय प्राप्त करता है नर्बन्धक-जीव की स्थिति 'मिथ्यात्व' नामक प्रथम गुणस्थानवी जीव तथा 'सम्यग्दृष्टि' नामक चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव से भिन्न है। यह उक्त दोनों अवस्थाओं के मध्यवर्ती वह अवस्था है, जहाँ से जीव ग्रन्थि-भेद की ओर आगे बढ़ता है। जीव ग्रन्थिभेद की ओर तभी बढ़ता है, जब उसका मिथ्यात्व अत्यन्त अल्प रह जाता है। ग्रन्थिभेद होते ही मिथ्यात्व नष्ट हो जाता है। वास्तव में मिथ्यात्व का अत्यन्त नष्ट हो जाना ही ग्रन्थिभेद कहलाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि अपुनर्बन्धक न तो मिथ्यात्वी है, न सम्यग्दृष्टि, और न ही सम्यकचारित्री। डा० दीक्षित ने भी अपुनर्बन्धक को सम्यग्दृष्टि और चारित्री से भिन्न बताया है। उन्होंने अपुनर्बन्धक को प्रथम गुणस्थान की चरम अवस्था माना है। इस स्थिति में मिथ्यात्व बहुत कम होता है। अतः जीव ग्रन्थिभेद की क्रिया में किए जाने वाले तीन करणों में से प्रथम 'यथाप्रवृत्तिकरण' की क्रिया में प्रवृत्त होता है। सारांश यह है कि अपनर्बन्धक अवस्था ही योग का आरम्भिक चरण है। इस अवस्था वाला जीव ही उन्नति करता हआ विकास की चरम सीमा, अर्थात उसके अन्तिम लक्ष्य स्वरूप मोक्ष को प्राप्त होता है। अपुनर्बन्धक के लक्षण
अपुनर्बन्धक जीव उत्कृष्ट संक्लेश अथवा तीव्रकषाय युक्त पापाचरण नहीं करता। इस दुःखपूर्ण संसार में उसकी रुचि/आसक्ति नहीं होती। वह लौकिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक सभी कार्यों में न्यायपूर्वक मर्यादा का पालन करता है। हरिभद्रसूरि के अनुसार अपुनर्बन्धक-जीव में भवाभिनन्दी जीव के विपरीत गुण पाये जाते हैं। भवाभिनन्दी जीव क्षद्र लोभी, दीन, मत्सरी-ईष्याल, धर्त एवं अज्ञानी होता है, और वह निरर्थक कार्यों में लगा रहता है जबकि अपुनर्बन्धक जीव अक्षुद्रता, उदारता, निर्लोभता, अदीनता, अमत्सरता, निर्भयता, सरलता, विवेक, ज्ञान आदि गुणों से युक्त होता है। उसके औदार्य, दाक्षिण्यादि गुण शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की तरह उत्तरोत्तर बढ़ते रहते हैं। वह देवपूजा, गुरुभक्ति, दान, शील, तप इत्यादि शुद्ध अनुष्ठानों में शुद्धाशय से प्रवृत्त होता है, और धर्म का अधिकारी बनकर मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करता है। अपुनर्बन्धक जीव ही 'पूर्वसेवा आदि सदनुष्ठानों का यथार्थता से पालन करता है, न कि उपचार से, क्योंकि इसके आत्म-परिणाम क्रमशः पवित्र भावयुक्त होते जाते हैं। आत्मसंयत पुरुषों
१. २.
.....an Apunarbandhaka is neither a Bhinnagranthi nor aCharitrin. - Dixit K.K.,Yogabindu, p. 20 .....In this graduated series an Apunarbhandhaka occupies the uppermost level of the first Gunasthāna.
-- Ibid, introduction p. 5 ललितविस्तरा, पृ० २६ योगशतकं, १३ भवाभिनन्दिदोषाणां प्रतिपक्षगुणैर्यतः । वर्धमानगुणप्रायो, ह्यपुनर्बन्धको मतः ।। - योगबिन्दु, १७८ क्षुद्रो लाभरतिर्दीनो मत्सरीभयवान् शठः। अज्ञो भवाभिनन्दी स्यान्निष्फलारम्भसंगतः ।। - वही, ६७ भवाभिनन्दिदोषाणां - 'क्षुद्रो लाभरतिर्दीनो मत्सरी इत्यादिना प्रागेवोक्तानाम् प्रतिपक्षगुणैरक्षुद्रतानिर्लोभतादिभिर्युतो "वर्धमानगुणप्रायो - वर्धमाना शुक्लपक्षक्षपापतिमण्डलमिव प्रतिकलमुल्लसन्तो गुणा औदार्यदाक्षिण्यादयः प्रायो बाहुल्येन यस्य स तथा, अपुनर्बन्धको धर्माधिकारी मतोऽभिप्रेतः। - वही, गा० १७८ पर वृत्ति (क) शान्तोदात्तत्वमत्रैव शुद्धानुष्ठानसाधनम्
सूक्ष्मभावोहसंयुक्तं तत्त्वसंवेदनानुगम्।। - योगबिन्दु, १८६ (ख) अध्यात्मसार, १/२/७ द्रष्टव्य : योगबिन्दु, १०६-१६६ तथा यशोविजय कृत 'पूर्वसेवा' नामक १२वी द्वात्रिंशिका । अस्यैषा मुख्यरूपा स्यात् पूर्वसेवा यथोदिता। कल्याणाशययोगेन शेषस्याप्युचारतः ।। - योगबिन्दु, १७६
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