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योग के अधिकारी, प्राथमिक योग्यता एवं आवश्यक निर्देश
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उक्त योग्यताओं के साथ-साथ सबसे प्रमुख वस्तु 'काललब्धि" का सुयोग हो अर्थात सम्यकत्व प्राप्ति का नियतकाल समुपस्थित हो गया हो। उक्त काललब्धि तभी सम्भव है, जबकि जीव के संसार-भ्रमण का काल अधिक से अधिक 'अर्धपुद्गलपरावर्तन मात्र अवशिष्ट रह गया हो।
त्रिविध कोटि के योगाधिकारी
योग-साधना के विभिन्न सोपानों पर चढ़ने के लिए साधकों को उनकी योग्यता के अनुकूल क्रमशः साधना करनी पड़ती है। आ० हरिभद्र ने सर्वप्रथम प्रारम्भिक योगाधिकारी के लिए प्राथमिक सोपान की नवीन कल्पना की, जिसका उपा० यशोविजय ने भी अनुसरण किया। इस सोपान का नाम है - 'अपुनर्बन्धक । इस प्रकार योग-साधना के अधिकारियों की उच्चता व नवीनता के आधार पर तीन कोटियाँ बनती हैं - १. अपुनर्बन्धक, २. सम्यग्दृष्टि और ३. चारित्री। इनका संक्षिप्त परिचय इसप्रकार है - १. अपुनर्बन्धक (योग-साधना का प्रथम अधिकारी) __ अपुनर्बन्धक का अर्थ है - पुनः बन्धन में न पड़नेवाला, अर्थात् मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का पुनः बन्ध न करने वाला। यहाँ वह उल्लेखनीय है कि जीव द्वारा बांधे जाने वाले कर्मों की अवधि की जघन्यता व उत्कृष्टता तथा कर्मों के फल देने की शक्ति में मन्दता या तीव्रता का निर्धारण-कषायों के परिणामों व स्वरूप पर निर्भर है, ऐसी जैन मान्यता है। अपने अच्छे आत्म-परिणामों तथा मन्द कषाय के कारण मिथ्यादृष्टि को भी गाढ़ अशुभ कर्मबन्ध नहीं हो पाता । उत्कृष्ट-संक्लेश-परिणाम वाले मिथ्यादृष्टि (संज्ञी, पर्याप्तक) को उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध होता है।
उक्त मिथ्यात्व चारित्रमोहनीय बन्ध की उत्कृष्ट स्थिति.सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण तथा जघन्य स्थिति 'अन्त: कोड़ाकोड़ी-सागरोपम' मानी गई है। जीव के उत्कृष्ट परिणामों के कारण जब कर्मों की
एक 'अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर में सिमट जाती है, तभी वह सम्यक्त्व की ओर उन्मुख हो पाता है, अन्यथा नहीं।
जिसकी तीव्रकर्मप्रकृति निवृत्त नहीं हो पाई है, ऐसा व्यक्ति योग-साधना का अधिकारी नहीं माना गया है। योग का अधिकारी होने के लिए यह आवश्यक है कि कर्मबन्ध की तीव्र एवं उत्कृष्ट स्थिति न हो,
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१. मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होने की पात्रता का नियत काल उपस्थित हो जाना 'काललब्धि है। २. जीव द्वारा लोक में व्याप्त समस्त पुद्गलों को एक बार ग्रहण व त्याग करने में जितना समय लगता है, उसे 'पुदगलपरावर्त
कहते हैं। संसार के समस्त पुदगलों को केवल एक बार किसी न किसी रूप में भोग सकें. मात्र इतना समय शेष रह जाए तो उसे 'अर्द्धपुद्गलपरावर्त' कहा जाता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा. ३०७. ३०८ तथा उन पर शुभचन्द्र विरचित टीका ४. तत्वार्थराजवार्तिक. ८/३/१०.८/१३/३: गोम्मटसार, (कर्मकाण्ड), २५७ (क) एवं सामान्यतो ज्ञेयः परिणामोऽस्य शोभनः।।
मिथ्यादृष्टेरपि सतो महाबन्ध-विशेषतः।। - योगबिन्दु, २६७ (ख) तत्त्वार्थराजवार्तिक,८/१२/१
गोमाटसार (कर्मकाण्ड). १३७. १३८ पर कर्णाटकवृत्ति ७. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड). १४४ पर कर्णाटकवृत्तिः तत्त्वार्थराजवार्तिक, ८/१५; तत्वार्थसूत्र, ८/१५, पर श्रुतसागरीयवृत्ति
गोमाटसार (कर्मकाण्ड), १४६ पर कर्णाटकवृत्ति
कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३०८ पर शुभचन्द्रकृत टीका; लब्धिसार, ८.६ १०. (क) अनियत्ते पुण सीए एगतेणेव हंदि अहिगारो।
तप्परततो भवरागओ दढं अणहिगारी त्ति ।। - योगशतक १० (ख) अनिवृत्ताधिकारायां प्रकृतौ सर्वथैव हि ।
न पुसस्तत्वमार्गेऽस्मिजिज्ञासाऽपि प्रवर्तते । - योगबिन्दु. १०१. तुलना : पातञ्जलयोगसूत्र २/१७, १८
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