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________________ पातञ्जलयोग एवं जैनयोग का तुलनात्मक अध्ययन अधिकारी हो सकते हैं, जो संज्ञी' (पंचेन्द्रिय), पर्याप्तक' एवं जागरुक अवस्था में हों, सविकल्प (साकार) ज्ञानोपयोग वाले हों, शुभ लेश्या (आत्म-परिणाम) से युक्त हों, साथ ही जिनमें श्रद्धा धर्मश्रवण की जिज्ञासा एवं संयम में पुरुषार्थ की क्षमता हो। जैन शास्त्रों में योग-साधना के अधिकारी होने के विषय में पर्याप्त ऊहापोह उपलब्ध होता है, जिसका विवेचन प्रस्तुत है :योग का अधिकारी - सम्यक्त्वी योग मोक्ष का हेतु है और जैनदर्शन में मोक्ष के साधन के रूप में सम्यग्दर्शन (समीचीन श्रद्धापूर्ण दृष्टि), सम्यग्ज्ञान (उक्त दृष्टि से युक्त हेय-उपादेय का विवेक) और सम्यक्चारित्र (सावद्य योगों से निवृत्ति एवं कषायहीनता)- तीनों के समुदाय को मान्यता प्रदान की गई है। इन तीनों के समुचित रूप से पालन करने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है, अन्यथा नहीं, इसलिए उक्त रत्नत्रय को ही जैनयोग-मार्ग कहना उपयुक्त होगा। आ० हरिभद्र, आ० शुभचन्द्र, आ० हेमचन्द्र, एवं उपा० यशोविजय आदि सभी आचार्यों ने उक्त 'रत्नत्रय' को 'योग-मार्ग' के रूप में स्वीकृत किया है। आ० हरिभद्र ने तो इसे 'महायोग' कहकर अपनी विशिष्ट श्रद्धा व्यक्त की है। उपरोक्त "जैनयोग-मार्ग की साधना का वास्तविक अधिकारी चारित्र (व्रत) सम्पन्न व्यक्ति होता है। चारित्र या संयम से सम्पन्न होने के लिए सम्यग्दृष्टि होना अर्थात् मिथ्यात्वग्रन्थि से रहित तथा तत्त्वज्ञानी. होना अत्यन्त आवश्यक है। इसलिए जैन शास्त्रों में मोक्ष-साधना के मार्ग में 'सम्यग्दृष्टि' व 'सम्यग्ज्ञानी' को अत्यधिक महत्त्व दिया गया और उसे मोक्ष का प्रथम अधिकारी कहा गया। कालान्तर में आचार्यों ने सम्यग्दर्शन को प्रथम सोपान तथा संयम/व्रत/चारित्र को द्वितीय सोपान कह दिया । इसप्रकार सम्यग्दृष्टि को प्राथमिक अधिकारी तथा संयमी/व्रती/चारित्री को उच्च अधिकारी माना जाने लगा। सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए भी आत्मा में विशिष्ट परिणमन योग्यता का होना जरूरी है। सम्यग्दर्शन की पात्रता के लिए यह आवश्यक है कि कर्मों का तथा उसमें कारणभूत कषायों का प्रभाव इतना मन्द पड़ जाए कि जीव द्वारा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु किया जा रहा पुरुषार्थ निश्चित रूप से सफलता को प्राप्त हो। ॐuse, १. मन के सद्भाव के कारण जिन जीवों में शिक्षा ग्रहण करने व विशेष प्रकार से विचार, तर्क आदि करने की शक्ति होती है, वे संज्ञी कहलाते हैं। आहार ग्रहण करने की शक्ति. शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन इनकी पूर्णता को पर्याप्ति कहते हैं. इनसे युक्त जीव को 'पर्याप्तक' कहा जाता है । ३. कषाय से अनुरञ्जित काययोग, वचनयोग और मनोयोग अर्थात् काय, वचन और मन की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। तत्त्वार्थराजयार्तिक, २/३/२ गोम्मटसार (जीवकाण्ड), ६५२ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। - तत्त्वार्थसूत्र, १/१ योगशतक,२ ज्ञानार्णव, १८/२१, २२,६/१ योगशास्त्र, १/१५ १० ज्ञानसार, १३/२ ११. धर्मस्तु सम्यग्दर्शनादिरूपो दानशीलतपोभावनामयः सास्रवानास्रवो महायोगात्मकः । - ललितविस्तरा, पृ० ६३ उत्तराध्ययनसूत्र, २८/२६; भगवती आराधना, ७३५ १३. दर्शनप्राभृत, (प्राभृतसंग्रह) २.३ . मोक्षप्राभृत, ३६; रयणसार, १२६ १२७, कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३२५ १४. आदिपुराण, ६/१३१, दर्शनप्राभृत २१; भावप्राभृत, १४७ १५. उत्तरपुराण, ६७/६६, शीलप्राभृल, २० १२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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