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________________ योग के अधिकारी, प्राथमिक योग्यता एवं आवश्यक निर्देश 93 यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उक्त गुणों की अपेक्षा का निरूपण ऐसे व्यक्तियों को लक्ष्य करके किया गया है, जो पूर्वजन्म में साधना की विशिष्ट कोटि में पहुंच गए थे किन्तु लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाये। ऐसे योग-भ्रष्ट व्यक्ति को अगले जन्म में पूर्व जन्म के विशिष्ट संस्कार स्वतः प्राप्त होते हैं। उनके लिए उक्त गुणों की अनिवार्यता नहीं है, क्योंकि श्रद्धा आदि गुणों की सिद्धि वे अपने पिछले जन्म में ही कर चुके होते हैं। ऐसे साधकों को पातञ्जलयोगसूत्र में भवप्रत्यय' और उनसे भिन्न सामान्य साधकों को उपायप्रत्यय' नाम से अभिहित किया गया है। सामान्यतः इन दोनों साधकों में मुख्य अन्तर यह होता है कि जहाँ 'उपायप्रत्यय' साधक 'व्युत्थितचित्त' होता है, और उसे चित्त की एकाग्रता एवं समाधि की सिद्धि के लिए विशिष्ट प्रयास करना पड़ता है, वहाँ 'भवप्रत्यय' साधक स्वतः 'समाहितचित्त' होता है और सम्प्रज्ञातसमाधि की प्राप्ति उसके लिए शत प्रतिशत सम्भव होती है।' निष्कर्ष यह है कि योग-साधना का अधिकारी व्यक्ति पूर्ण आस्तिक, संसार से विरक्त, एवं संयम साधना में पूर्ण सक्षम होता है। आ. जैनयोग-मत जैनशास्त्रों में भी मोक्ष-प्राप्ति के लिए कर्मभूमि में एवं मनुष्य योनि में उत्पन्न होना अनिवार्य माना गया है। भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले मनुष्य तथा कर्मभमि में उत्पन्न होने वाले मनष्येतर प्राणी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। जैन शास्त्रोक्त १ 4 में उत्पन्न जीव को ही मुक्ति प्राप्त करने का अवसर मिल सकता है, अन्य को नहीं। भोगभूमि में उत्पन्न होनेवाले व्यक्ति संयम आदि चारित्र पालन करने में अक्षम होते हैं, इसलिए वे मुक्ति के अनधिकारी माने गए हैं। __ मनुष्य योनि में भी सभी अध्यात्म-साधना के अधिकारी नहीं होते। कुछ विशिष्ट गुणों से सम्पन्न मनुष्यों में ही मुक्ति की पात्रता होती है, जिन्हें 'भव्यजीव' कहा गया है। शास्त्रों के अनुसार योग्य कालादि साधन मिलने पर जो जीव आत्मा के स्वाभाविक निज गुणों-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्यादि को प्रकट करने में सक्षम हो, वह 'भव्य' कहलाता है। भव्य को 'कनकपाषाण' और अभव्य को 'अन्धपाषाण' की उपमा दी गई है। जिस प्रकार अन्धपाषाण में सुवर्ण बनने की योग्यता नहीं होती, वैसे ही अभव्य जीवों में मोक्षमार्ग को पार करने की सामर्थ्य नहीं होती। भव्य मनुष्यों में भी सभी मुक्ति के अधिकारी नहीं होते। केवल वही 'भव्य' साधना के सफल १. पातञ्जलयोगसूत्र, २/१ पर व्यासभाष्य और भोजवृत्ति की अवतरणिका भगवती आराधना, ७८१ की टीका कर्मभूमि वही है जहाँ मोक्षमार्ग के ज्ञाता और उपदेष्टा तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं। इसके अतिरिक्त क्षेत्र अकर्मभूमि' कहलाता है। जैन शास्त्रों के अनुसार कर्मभूमियों की संख्या १७० मानी गयी है। मुख्यतः भरत, ऐरावत, और विदेह - ये तीन कर्मभूमियाँ हैं, जिनमें से प्रत्येक में ३-३ कर्मभूमियाँ स्वीकार की गई है। यथा -५ भरत, ५ ऐरावत और ५ विदेह। इस प्रकार कर्मभूमियों की संख्या १५ हो जाती है। किन्तु यदि ५ विदेहों के ३२-३२ क्षेत्रों को ध्यान में रखकर कर्मभूमियों की संख्या निर्धारित की जाये तो विदेह क्षेत्र में १६० कर्मभूमियाँ हो जाती हैं। भरत, ऐरावत में से प्रत्येक की पांच-पांच कर्मभूमियों को मिला देने से कुल १७० कर्मभूमियाँ हो जाती है। ४. हरिवंशपुराण, ६४/६४, ६६/५० कार्तिकेयानुप्रेक्षा, २६६ ५. भगवतीसूत्र. २६/८/१, २ जीवाजीवाभिगमसूत्र. २/४५, सर्वार्थसिद्धि, ३/१/११३ सर्वार्थसिद्धि, १०/६, तत्त्वार्थराजवार्तिक, ९/१०/२ तत्त्वार्थराजवार्तिक, ३/३७ सिझंति भव्यजीवा अभव्यजीवा न सिज्झंति। -- पंचसंग्रह, (प्राकृत) १५५, १५६ ज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयं भवितुं योग्यो भव्यः। - उद्धृत : अध्यात्म-अनुभव-योगप्रकाश, पृ० १० १०. उत्तराध्यानसूत्र, ३/११: तत्त्वार्थराजवार्तिक,८/६/६ ११. पंचसंग्रह. (प्रकृत) १/५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001981
Book TitlePatanjalyoga evam Jainyoga ka Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAruna Anand
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size25 MB
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