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________________ स्थानकवासी संप्रदाय का जोवनानुभव वक्त उनके साथ में शिष्य परिवार नहीं था और वे अपने एक बड़े गुरूभाई के साथ उस प्रदेश में विचरे थे, तपस्वीजी के यह बड़े गुरूभाई जिनका नाम चम्पालालजी था, वे अधिकतर दक्षिण के अहमदनगर जिले में विचरते रहते थे । चम्पालालजी अच्छे व्याख्याता कहलाते थे । उनकी धर्मोपदेश देने की कला अच्छे प्रकार की थी । बहुत वर्षो से दक्षिण में ही विचरते रहने के कारण मराठी भाषा का उनका अभ्यास बहुत अच्छा हो गया था। मैंने जब उनको देखा तथा कुछ समय उनके पास रहने का भी प्रसंग आया तब वे मौटेतोर पर मराठी में हो व्याख्यान देते रहते थे । जैन श्रावकों के सिवाय और दूसरे दक्षिणी लोग भी उनका धर्मोपदेश सुनने के लिए माया करते थे और उन व्याख्यानों में वे मौटेतौर पर तुकाराम और नामदेव जैसे महाराष्ट्रीय सन्तों के अभंगों और पदों को अच्छी तरह गा गा कर सुनाते और उन पर सुनने वाले लोगों का मनोरंजन हो उस तरह प्रवचन किया करते थे । इससे केवल जैन लोगों के अतिरिक्त मराठे, ब्राह्मण, पाटील आदि सभी वर्ण के लोग उनके प्रवचनों में ठीक संख्या में प्राते रहते थे कभी कभी मामलतदार और गांव पाटील आदि कुछ सरकारी नोकर भी उनके व्याख्यान सुनने चले आते थे । ( 32 ) 1 तपस्वी केशरीमलजी उनका साथ छोड़कर जब मालवे में चले आए और उज्जैन में चातुर्मास किया वहां पर अचलदासजी नामक एक मारवाड़ी श्रोसवाल को दीक्षा देकर अपना प्रथम शिष्य बनाया । उसके बाद वे इन्दौर नगर में चातुर्मास रहे। वहाँ एक सवाल पिता पुत्र को अपने पास दोक्षित किया। पिता का नाम मुन्नालालजो था वे लगभग 45 वर्ष की उम्र के थे उनका घरभंग होजाने से उन्होंने अपने 11-12 वर्षीय पुत्र मोतोलाल के साथ दीक्षा ग्रहण की । जब मैंने 1959 में दिग्ठाण में दीक्षा ली थी, उसके बारह महिने पहले उन्होंने दीक्षा ली थी । मुन्नालालजी सामान्य पढ़े लिखे थे और कोई व्यवहारिक या दूसरा ज्ञान नहीं था । बालक मोतीलाल बिल्कुल पढा लिखा नहीं था । दीक्षा ग्रहण करने के बाद साधुनों की परिपाटी के अनुसार ज्ञान उपार्जन करने का शुरू किया था। बड़े शिष्य प्रचलदासजी ने दो-एक वर्ष पूर्व दीक्षा ली थी मगर खास कुछ पढ़े-लिखे नहीं थे. मैंने किन संयोगों और किस स्थिति में दिग्ठाण में दीक्षा ली थी, उसका वर्णन • पहले लिखी गई जीवन कथा के अन्तिम पृष्ठों में दिया गया है । Jain Education International तपस्वीजी, केशरीमलजी के उक्त तोन शिष्यों से मैं कुछ अच्छी सी हिन्दी पढ़ और समझ सकता था । यति संसर्ग के कारण कुछ और भी स्तुती स्त्रोतों का पाठ जानता था । उन साधुत्रों को उसकी - कुछ भी ज्ञान नहीं था । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
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