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स्थानकवासी संप्रदाय का जोवनानुभव
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में एक बार कुम्भ का महा मेला भी इस मंदिर के निमित्त उज्जैन में लगता है इस महा पर्व के अवसर पर लाखों यात्री भारतवर्ष के कोने कोने से आते हैं और हजारों साधु, संत, बाबा, जोगी, खाखी, वैरागो, उदासी, सन्यासी, आदि त्यागी कहलाने वाले साधु संतों की भी जमाते इकट्टी होतो हैं ।
___ महाकालेश्वर के मंदिर के पास ही ६४ योगनियों का प्राचीन मंदिर है । जो अब प्रायः भग्नावस्था में है। ६४ योगनियों को विक्रम राजा ने प्रसन्न की थी। जिसकी अनेक कहानियां लोगों में प्रचलित है।
विक्रम राजा को चौपई नामक एक पुराना कोई ३०० वर्ष पहले रचा गया देशी भाषा का पद्यमय कथा प्रबन्ध मैंने पढ़ा था । इन बातों के कुछ संस्कार मन में जमे हुए थे । इसलिये उज्जैन को देखने की मेरी अभिलाषा थी।
उज्जैन तपमी जी के सम्प्रदाय का मुख्य स्थान था। इस सम्प्रदाय के प्राद्य माने जाने वाले साधु श्री धमदामजी बहुत समय तक उज्जैन में रहे थे और उनके भक्त श्रावकों का वह मुख्य स्थान था । तपसी जी के गुरु श्रीरामरतनजी जो अपने समय में सम्प्रदाय के एक अच्छे संत माने जाते थे। उनको वृद्धावस्था का अधिक समय उज्जैन हो में व्यतीत हुप्रा था। उज्जैन की सुप्रसिद्ध लूण मंडी नामक गली में सम्प्रदाय का प्राचीन धमस्थानक बना हुआ है। इसी धर्मस्थानक में जाकर हमने निवास किया, और वह पूरा चातुर्मास वहां व्यतीत किया।
उज्जैन के एक उदार-चेता नगरसेठ का वर्णन....
उज्जैन में काफी जैन श्रावकों की बस्ती है। उनमें कई अच्छे धनिक भी हैं। वहां पर एक सबसे अधिक धनाढ्य यमझा जाने वाला एक जैन कुटुम्ब था जो इस समय तो सामान्य स्थिति में था । वह कुटुम्ब नवलक्खा के नाम से नगर में प्रसिद्ध था । उनकी हवेली उस समय भी विद्यमान थी । कहते हैं कि पेशवानों के जमाने में एक बड़ा सरदार बहुत बड़ी फौज लेकर उज्जैन की बस्ती को लूटो पाया। पेशवानों के जमाने में यह आम मशहूर बात थी कि जब कभी उनके सरदारों के पास अपनी फौज को देने-खिलाने आदि का कोई अर्थ प्रबन्ध नहीं होता था, तो वे अपनी फौज को लेकर कपी ऐसे अच्छे नगर को, जहां धनिकों और व्यापारिया की अच्छी बस्ती होती थी, लूटने के लिए टूट पड़ते।
इस तरह वह पेशवा सरदार जब उज्जैन के लोगों को लूटने पहूँचा तो नगर निवासी महाजन सब एकत्र हुए और नगर सेठ जो नवलक्खा कहलाते थे -उनके पास पहुंचे । नगर पर आये हुए
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