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________________ (२६ ) मेरो जोवन प्रपंच कथा संकट का निवारण किस तरह किया जाय, इस विषय में नगर-सेठ की प्रमुखता में विचार विनिमय हमा। उस समय ग्रामों पर तथा नगरों पर पाने वाले ऐसे संकटो का सामना करने के लिये नगर के जो महाजनों के मुखिया होते थे, वे ही एक परामर्श के लिये अाधारभूत होते थे । उज्जैन के उन नवलक्खा नगरसेठ ने महाजनों से कहा कि में उस पेशवा के सरदार की छावनी में जाकर सरदार से बातचीत करू' कि वे किसलिये उज्जैन पर फौज लेकर पाये हैं ? तदनुसार नगर सेढ़ अपने कुछ विश्वस्त मुनीम आदि को साथ लेकर उस सरदार के पास पहुंचे। उस समय की प्रथानुसार नगरसेठ ने सरदार को कुछ नजराना भेंट किया। सरदार को मालूम हुमा कि यह उज्जैन का नगरसेठ है । उज्जैन की सारी प्रजा इनको बहुत आदर और सन्मान की दृष्टि से देखती है। ये जो कुछ प्रजा-जनों को सलाह देते हैं - वैसा प्रजा-जन व्यवहार करते हैं । सरदार जानता था कि उज्जैन के इस धनाढ्य नगरसेठ को सारे मालवा में बड़ी प्रसिद्धि और ख्याति है । इसलिये उसने नगर सेठ को बड़े सम्मान के साथ अपने पास गद्दी पर बिठाया और पूछा कि किसलिये आपका यहाँ पाना हुया ? जवाब में नगर सेठ ने कहा कि हमारे नगर के प्रजाजनों ने सुना है कि आप उज्जैन को बस्ती को लूटने के इरादे से आये हैं । इसलिये सभी प्रजाजन भय से बड़े त्रस्त हैं और घरबारों को बंद कर अपने कुटुम्ब कबीलों को लेकर इधर उधर दूर के गांवों में भाग जाने की कोशिशें कर रहे हैं । नगर के महाजन मौर विशिष्ट प्रजाजनों ने एकत्र होकर मुझसे कहा कि आप सरदार के पास जा कर कोई रास्ता निकालें । इस दृष्टि से मैं आपके पास आया हूँ । आप क्या चाहते हैं ? उत्तर में सरदार ने कहा कि कई महिने हो गये । मेरी फोज को कुछ देने और खिलाने के लिये मेरे पास पैसा नहीं है। इसलिये उज्जैन के धनिक लोगों से पैसा लेने पाया हूँ । . तब नगर सेठ ने कहा कि आपको फिलहाल कितने रुपयों की जरूरत है ? उस समय चादी और सोने के सिक्के हो देश में सब व्यवहार के लिये चलते थे। आज की तरह कागजी नोट नहीं थे। सोने चांदी के सिक्के, सेर और मणों में तोले जाते थे और अन्दाजन उनका मूल्य मान लिया जाता था। __ सरदार ने कहा-मुझे ५० लाख रुपयों की जरूरत है सो आप पूरी करदें तो मैं वापिस चला जाऊँगा। नगर सेठ ने तुरन्त कहा-मैं दो चार दिन में उस रकम का प्रबन्ध कर दूंगा और आपके पास पहुंचा दूंगा । कृपा कर आप अपने सैनिकों को आदेश देदें कि वे नगर जनों को किसी भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001970
Book TitleMeri Jivan Prapanch Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSarvoday Sadhnashram Chittorgadh
Publication Year1971
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size8 MB
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