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________________ ज्ञानदीपिकावृत्तिः ४७ सर्वमेलनेन षष्ट्युत्तरशताधिकानि विंशतिसहस्राणि नामानि जायन्ते । अत्र तु ग्रन्थविस्तरभयादिङ्मात्रमेव दर्शितम्, अभियोगपरायणैः स्वयमभ्यूहनीयानि । प्रस्तुतमाह-हे भैरवपत्नि रुद्राणि ! अनेनामन्त्रणेन तद्भार्यात्वाद्भगवत्या अप्यगाधत्वं सूचितम् । खलु = निश्चयेन यानि = अत्यन्त-गुह्यानि = मन्दधियामगम्यानि ते = तव नामानि = भवन्ति तेभ्यः परेभ्यः = किञ्चिदधिकेभ्य: विंशतिसहस्रेभ्यो नामभ्यो नमो नमस्कारोऽस्तु । एतावद्भिः सर्वैरपि नामधेयैः कृतो नमस्कारो भावभृतां त्वय्येवोपतिष्ठत इति भावार्थसङ्गभितेकोनविंशवृत्तार्थः ॥१९॥ भाषा-अब इस एक श्लोक से श्री भगवती के नवकोटि नामो में से कितनेक मुख्य मुख्य नामों की उत्पत्ति कहते हैं । हे त्रिपुरे श्री भगवती ! आईपल्लवितैः = आ तथा ई अक्षर को अन्त में रखकर परस्परयुतैः = परस्पर में मिले हुए द्वित्रिक्रमात् = अक्षरैः = दो दो तथा तीन तीन अक्षरों के अनुक्रम से स्वरादिभिः = तथा स्वरों को आदि में रखने से काद्यैः क्षान्तगतैः = ककार से लेकर क्षकारपर्यन्त वर्णों से जितने नाम उत्पन्न होते हैं अर्थात् सोलह स्वरों को आदि में धरकर पैंतीस व्यञ्जनाक्षरों से जितने नाम उत्पन्न होते हैं, जैसे अकाई, अखाई, अगाई, अघाई, अडाई, आदि अक्षाई, पर्यन्त १६४३५-५६० पाँचसो साठ नाम हुए। और क्षान्तैः तैः = आ-ई अक्षरों को अन्त में रखकर अन्योन्य में मिले हुए ककारसे लेकर क्षकारपर्यन्त पैंतीश व्यञ्जनों से जितने नाम उत्पन्न होते हैं । जैसे ककाई, कखाई, कगाई, कघाई, कडाई लेकर क्षक्षाई पर्यन्त बारह सो पच्चीश ३५४३५=१२२५ नाम हुए । इन नामों के आदि में सस्वरैः = सोलह स्वरों के रखने से जितने नाम उत्पन्न होते हैं, जैसे अककाई, अकखाई आदि लेकर अः अकक्षाई, अक्षिक्षाई पर्यन्त उन्नीस हजार छहसो १२२५४१६=१९६०० नाम हुए । इन नामों में पूर्वोक्त ५६० नाम मिला देने से बीस हजार एकसो साठ १९६००+५६०=२०१६० नाम हुए । सो भैरवपत्नि! हे परमेश्वरी ! इस रीति के अनुसार खलु = निश्चयरूप से यानि = जितने गुह्यानि = अत्यन्त गुप्त ते = आप के नामानि-भवन्ति = नाम उत्पन्न होते हैं । तेभ्यः = उन पूर्वोक्त परेभ्यः = विंशतिसहस्त्रेभ्यः = बीस हजार एकसो साठ संख्यावाले आप के नामों नमः = नमस्कार हो । अर्थात् को इन पूर्वोक्त नामों में से कोई भी नाम लेकर जो पुरुष नमस्कार करता है तो वह नमस्कार आप को ही प्राप्त होता है ॥१९॥ १. सोलह स्वर यह है-अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः । २. पैंतीस व्यञ्जन यह हैं क् ख् ग् घ् ङ् । च् छ् ज् झ् ञ् । ट् ठ् ड् ढ् ण् । त् थ् द ध् न् । प् फ् ब् भ् म् । य र ल व् श् ष् स् ह । ळ क्ष् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001966
Book TitleTripurabharatistav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan Puna
Publication Year2008
Total Pages122
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size6 MB
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