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ज्ञानदीपिकावृत्तिः
कौशिक्यारभटी चैव भारती सात्वती परा । मध्यमारभटी चैव तथा मध्यमकौशिकी ॥१॥ सुकुमारार्थसन्दर्भा कौशिकी तासु कथ्यते । या तु प्रौढार्थसन्दर्भा वृत्तिरारभटी तु सा ॥२॥ कोमला प्रौढसन्दर्भा कोमलार्था च भारती । प्रौढार्थां कोमलप्रौढसन्दर्भी सात्वती विदुः ॥३॥ कोमलैः प्रौढसन्दर्भबन्धैर्मध्यमकौशिकी । प्रौढार्था कोमले बन्धे मध्यमारभटीष्यते ॥४॥
उदाहरणानि तत एवावगन्तव्यानि । 'आर्भटी' 'आरभटी' इति शब्दयोर्मध्ये विशेषस्तु वर्षा-वरषादिशब्दवत् । अत आर्भटीत्युच्चारणे न दोषः । अतः सोद्धतजापेन भगवत्या निर्मलस्फटिकसङ्काशरूपस्य ध्यानी मनीषितां सिद्धि लभते । न च मुत्कलनिष्पङ्कचित्तस्य ध्यातुर्दुष्करं किमपि । यदुक्तं मागधीभाषायाम्
चित्ते बद्धे बद्धो मुक्को य नत्थि संदेहो विमलसहाउ अप्प मइलिज्ज मइलिए चित्ते ॥१॥ इत्येकादशवृत्तार्थः ॥११॥
भाषा-धर्म, अर्थ, काम, पुरुषार्थों के साधनों को कहकर अब मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि के लिये श्रीभगवती की मूर्ति का ध्यान कहते हैं । भगवती ! शशिखण्डमण्डितजटाजूटाम् = चन्द्रमा के खण्ड से शोभायमान जटाजूटवाली और नृमुण्डस्रजम् = मनुष्यों के कपालों की माला को धारण करनेवाली और बन्धूकप्रसवारुणाम्बरधराम् = दुपारी पुष्प के समान रक्त वस्त्रों को धारण करनेवाली और प्रेतासनाध्यासिनीम् = प्रेतासन के ऊपर बैठी हुई चतुर्भुजाम् = चार भुजावाली त्रिनयनाम् = तीन नेत्रोंवाली और आपीनतुङ्गस्तनीम् = अतिपुष्ट तथा अतिउच्च स्तनोंवाली और मध्ये = मध्यभाग में निम्नवलित्रयाङ्किततनुम् = तीन रेखाओं से शोभित शरीरवाली त्वाम् = आपकी मूर्ति को आर्भट्या = अत्यन्त कठिन वृत्ति से योगिजन त्वद्रूपसंवित्तये = आप के ब्रह्मानन्द स्वरूप के अनुभव करने के लिये ध्यायन्ति = स्मरण करते हैं । अर्थात् इस श्रीभगवती के स्वरूप का ध्यान करने से साधक पुरुष मोक्ष पद को प्राप्त हो जाते हैं ॥११॥
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