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________________ ज्ञानदीपिकावृत्तिः = भाषा - इस जगत् में द्रव्य ही मुख्य सार वस्तु है, अतएव द्रव्य की सिद्धि के लिये श्रीभगवती की पीत मूर्ति का ध्यान कहते हैं । हे श्रीभगवती ! ये जो पुरुष क्षणम्-अपि क्षणमात्र भी त्वद्गते -चेतसि = आपके ध्यान में एकाग्र बने हुए चित्त में चञ्चत्काञ्चनकुण्डलाङ्गदधराम् = देदीप्यमान सुवर्णमय कुण्डलों को तथा भुजबन्धों को धारण करनेवाली और आबद्धकाञ्चीत्रजम् = सुवर्णमय कटिबंध को धारण करनेवाली त्वाम् = आप की मूर्ति को स्थिराम्कृत्वा = निश्चलरूप से ध्यायन्ति = स्मरण करते हैं । तेषाम् = उन उत्तम भाग्यवाले पुरुषों के वेश्मसु = घरों में अहः- अहः विभ्रमात् = बड़े उत्साह से स्फारीभवन्त्यः विस्तार को प्राप्त होती हुई और माद्यत्कुञ्जरकर्णतालतरलाः = मदोन्मत्त हाथी के कानों के फटकार के समान अत्यन्त चंचल स्वभाववाली श्रियः धनलक्ष्मी चिरम् = बहुत कालपर्यन्त स्थैर्यं = भजन्ति स्थिर हो जाती हैं । अर्थात् पीतवर्ण का ध्यान लक्ष्मीदायक होने के कारण इस पूर्वोक्त सुवर्ण के आभूषणों से शोभित श्रीभगवती की मूर्ति का ध्यान करने से साधक पुरुष धनकी महान सम्पदा को प्राप्त करता है ॥१०॥ = दिन प्रति दिन = = Jain Education International = For Private & Personal Use Only २९ www.jainelibrary.org
SR No.001966
Book TitleTripurabharatistav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan Puna
Publication Year2008
Total Pages122
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size6 MB
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