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________________ २७ ज्ञानदीपिकावृत्तिः पीतं स्तम्भेऽरुणं वश्ये क्षोभणे विद्रुमप्रभम् । अभिचारेऽञ्जनाकारं विद्वेषे धूमधूमलम् ॥ इति नवमवृत्तार्थः ॥९॥ भाषा-धर्मपुरुषार्थ के साधन को कहकर अब कामपुरुषार्थ की सिद्धि के लिये श्रीभगवती की मूर्ति का ध्यानवर्णन करते हैं । हे श्रीभगवती ! ये = जो पुरुष क्षणम् अपि = क्षणमात्र भी अनन्यमनसः = एकाग्रचित्त होकर ध्यानसमाधि में इमाम् द्याम् = इस आकाशमण्डल को त्वत्तेजसा = आपके तेज से सिन्दूरपरागपुञ्जपिहिताम् = सिंदूर के चूर्ण समान रक्त रंगी पश्यन्ति = देखते हैं। च = और उर्वीम् = इस पृथ्वीमण्डल को विलनियावकरसप्रस्तारमग्नाम् इव = टपकते हुए लाक्षारस के बिन्दुओं के समान रक्त रंगी देखते हैं । तेषाम् = उन साधक पुरुषों के अनङ्गज्वरक्लान्ताः = कामज्वर से पीड़ित हुई और त्रस्तकुरङ्गशावकदृशः = डरते हुए हरिण के बच्चे के समान मनोहर नेत्रोंवाली स्त्रियः = वाञ्छित स्त्रियाँ वश्याः भवन्ति = वश हो जाती हैं । भावार्थ यह है कि श्रीभगवती की रक्तवर्ण मूर्ति का ध्यान करने से और पूर्वोक्त कामबीजाक्षर का जाप करने से साधक पुरुषों को मनोवाञ्छित वश्यसिद्धि हो जाती है अर्थात् वह साधक जिस पुरुष को या स्त्री को अपना वशवर्ती करना चाहता है, वह तत्काल साधक पुरुष का वशवर्ती हो जाता है ॥९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001966
Book TitleTripurabharatistav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan Puna
Publication Year2008
Total Pages122
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size6 MB
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