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________________ ज्ञानदीपिकावृत्तिः भाषा-अत्युत्कट वक्त्वकला की सिद्धि के लिये विशेष ध्यान का उपदेश कहते हैं । हे भारति = श्रीसरस्वतीरूप भगवती ! पाण्डुरपुण्डरीकपटलस्पष्टाभिरामप्रभाम् = श्वेत कमलों के समूह के समान देदीप्यमान सुन्दर कान्तिवाली और शिरः = साधक पुरुष के मस्तक को अमृतद्रवैः इव अमृतरस से प्रकाश से सिञ्चन्तीम् = सींचती हुई ऐसी मूर्ध्नि स्थिताम् = छत्र के भाँति मस्तक पर विराजमान त्वाम् = आप की मूर्ति को ये = जो पुरुष ध्यायन्ति = स्मरण करते हैं । तेषाम् = उन पुरुषो के वक्त्राम्बुजात् = मुखारविन्द से अश्रान्तम् = निरन्तर सुरसरित्कलोललोलोमिवत् = श्रीगङ्गा नदी की अतिप्रचण्ड तथा अति चञ्चल तरङ्गों के समान विकटस्फुटाक्षरपदा = कठोर तथा अतिगूढ़ अर्थो से मिली हुई वाणी = छन्दोबद्ध संस्कृतवाणी निर्याति = निकलती है अर्थात् इस श्लोक में कहे हुए श्रीसरस्वती के स्वरूप का ध्यान करने से और पूर्वोक्त सरस्वती के बीजाक्षरमन्त्र का जाप करने से साधक पुरुष लोकोत्तर तथा विचित्र संस्कृत काव्यों की रचना में समर्थ हो जाता है ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001966
Book TitleTripurabharatistav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan Puna
Publication Year2008
Total Pages122
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size6 MB
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