________________
१५
ज्ञानदीपिकावृत्तिः अवैति = जानते हैं । प्रतिपर्व = प्रत्येकपर्व के दिन सत्यतपसः = सत्यतपा नामक मुनि के आख्यानम् = आख्यान को कीर्तयन्तः = कीर्तन करते हुए द्विजाः = ब्राह्मण लोग यत् = इस कामबीजाक्षर को प्रणवास्पदप्रणयिताम् = ओंकार के सदृश नीत्वा = मानकर प्रारम्भे = प्रत्येक कथा के प्रारम्भ में उच्चरन्ति = उच्चारण करते हैं ॥४॥
गूढार्थ:-सर्वत्र प्रसिद्ध होने पर भी इस कामबीजाक्षर को विरले पुरुष ही जानते हैं । इस कहने से कविका यह भावार्थ है कि 'निष्कलम्' ऐसे मूलस्थित पाठ से क्ली बीजाक्षर को ककार-लकार करके रहित उच्चारण करना योग्य है जैसे 'ई'। और कितनेक आचार्य क्ली बीज को रकार के साथ मानते हैं अर्थात् क्ी ऐसा मानते हैं उनके मत में भी अपरः ऐसे मूलस्थ विशेषण से रकार रहित करने से पूर्ववत् ई ऐसा रह जायगा सो यह बीजाक्षर सरस्वती का है। इस अतिगूढ़ बीजाक्षर को विरले ही पुरुष जानते हैं। जैसे एक स्थान पर लिखा है कि 'सैकड़ों मनुष्यों में कोई शूरवीर होता है, हजारों मनुष्यों में कोई बुद्धिमान होता है, लाखों मनुष्यों में कोई शास्त्रज्ञ होता है। परन्तु शास्त्रों के रहस्य अर्थो को तो कोई विरले ही पुरुष जानते हैं' ॥४॥
१. ओंकार सब वैदिक शास्त्रों मे माङ्गलिक है। जैसे एक स्थान पर लिखा है कि, ओंकार शब्द
और अथशब्द ये दोनों ब्रह्माजी के कण्ठ को भेदन कर के उत्पन्न हुए थे इसलिये दोनो शब्द माङ्गलिक है। 'ई' इस शब्द का उच्चारण करने में प्राचीन मुनिजन इस इतिहास को कहते हैं कि हिमाचल पर्वत के उत्तर शिखर पर एक पुष्पभद्रा नाम नदी थी। उसके तीर पर पुष्पभद्र नाम का एक वट था। वहाँ सत्यतपा नामक एक मुनि निराहार घोर तपस्या कर रहा था। उस समय एक सूअर आया, जो कि व्याध के घोरबाण से जर्जर-शरीर था और चित्कार से दिशाओं को बधिर कर रहा था। उस को देखकर उस मुनि ने उसकी पीडा से दुःखित होकर परम अनुग्रह से 'ई' ऐसा शब्द उच्चारण किया। तदनन्तर उस सूअर के पीछे अपने धनुष को चढाये हुए एक व्याध ने आ कर पूछा "हे मुनि ! मेरे बाण से घायल हुआ सूअर कौन से मार्ग से गया, कृपा कर के बताइये । क्योंकि मेरा परिवार भूखा मर रहा है" । इन वचनों को सुनकर सत्यतपा मुनि के मन में बहुत चिन्ता उत्पन्न हो गई। क्योंकि-जो उस व्याध को "मैंने सूअर को नहीं देखा" ऐसा यह कह दें तो असत्य भाषण हो जाये। और "मैंने सूअर को देखा यह कह दे" तो जीवहिंसा हो जाय, यह कैसा संकट आ पड़ा है।' इस प्रकार मुनि को सोचते हुए देखकर 'ई' ऐसे बीजाक्षर का उच्चारण करने से परम प्रसन्न हुई श्रीसरस्वती देवी ने उस मुनि के मुख में आकर सत्य, और हितकारी वचन उच्चारण करवाया कि, "हे व्याध ! जिसने सूअर को देखा है वह तो कहती नहीं है जो कहती है वह देखती नहीं है। हे व्याध ! तुम तो स्वकार्यार्थी हो इस लिये बारबार • क्यों पूछते हो ? चले जाओ' । इस सम्प्रदायवाले ब्राह्मण लोग अभी तक पर्वाध्याय की आदि
में अनुनासिक सहित ईं ऐसे बीजाक्षर का उच्चारण करते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org