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श्रीत्रिपुराभारतीस्तवः
है । इसलिये 'हस्थित' ऐसे मूलपाठ से कुछ पण्डित सौ बीजाक्षर को अनुस्वार सहित मानते हैं, जैसे 'सौं' । और 'सहसापदैस्त्रिभिः' इस मूलपाठ से फिर भी विशेषता यह है कि इन तीनों बीजाक्षरों ऐं क्लीं सौँ का सकार हकार के साथ उच्चारण करना चाहिये, जैसे 'हैं-स्कू ली-स्हौं' । और सर्वतः ऐसे मूलपाठ से 'सरु' ऐसे पद को पृथक् निकाल कर पूर्वोक्त 'स्हक्लीं' बीजाक्षर का विशेषण करने से रकार के साथ भी इसका उच्चारण करना योग्य है । जैसे ही यह कूटाक्षर बड़ा चमत्कारिक और साक्षात् शिवरूप है । अथवा पूर्वोक्त सरु पद को हसौं का विशेषण करने से उस बीजाक्षर को विसर्गों के साथ उच्चारण करना योग्य है जैसे हसौः । इत्यादि अनेक बीजाक्षरों के भेद है और इस श्लोक के अनेक अर्थान्तर हैं परन्तु ग्रन्थ बढ़ जाने के भय से मैंने मुख्यमुख्य ही बताये हैं । त्रिपुरा देवी का जप, होम, पूजा, ध्यान, न्यास, क्रिया आदि समग्र विधि को तथा विशेष बीजाक्षरों के रहस्य विषय को दूसरे शास्त्रों से या अपने गुरु के मुखारविन्द से जान लेना योग्य है । क्योंकि शास्त्रों में कहते हैं कि जप, होम आदि विधि के विना मन्त्रसाधन फलदायक नहीं होता है ॥१॥
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