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ज्ञानदीपिकावृत्तिः अहःस्थिता= उष्णांशोः द्युतिः इव प्रभातकाल के सूर्यमण्डल की कान्ति के समान शोभा को सर्वदा सर्व काल धारण कर रही, ऐसी एषा= यह अर्थात् ज्ञानीजनों के लिए प्रत्यक्ष स्वरूपवाली और असौ= वह अर्थात् अज्ञजनों के लिए गुप्त स्वरूपवाली वाङ्मयी वाणीरूप तथा ज्योतिर्मयी: ज्योतिःस्वरूप त्रिपुरा= श्रीत्रिपुरा नाम देवी त्रिभिः पदैः= इन पूर्वोक्त तीन विशेषणों से या इन तीन मन्त्राक्षरों से न: हम लोंगों के अघं= पाप को या दुःख को सहसा तत्काल छिन्द्यात्= नष्ट करो ॥१॥
भावार्थ:-जो साधक पुरुष अपने ललाट के मध्य भाग में इन्द्रधनुष्य के समान विचित्र वर्णवाले एँ बीजाक्षर का और मस्तक में चन्द्रमा की कान्ति के समान उज्ज्वल वर्णवाले क्ली बीजाक्षर का और हृदयकमल में प्रातःकालिक सूर्य की कान्ति के समान रक्तवर्णवाले सौँ बीजाक्षर का ध्यान करता है उस साधक पुरुष को श्रीत्रिपुरा देवी के अनुग्रह से धर्म, अर्थ, काम मोक्ष आदि पुरुषार्थ की सिद्धि हो जाती है और समग्र आपदाएँ नष्ट हो जाती हैं ॥१॥
विशेषार्थ:-इस श्लोक में से श्रीत्रिपुरा देवी के बीजाक्षर मन्त्रों का भी उद्धार होता है । जो कि इस स्तोत्र के वीसवें श्लोक में कहा जायेगा । उन मन्त्राक्षरों का उद्धार करने की विधि यह है कि इस श्लोक के पहले ऐन्द्रस्येत्यादि में पहला अक्षर 'ऐं' बीजाक्षर है । दूसरे पाद शौक्लीम्-इत्यादि में दूसरा अक्षर 'क्लीं' बीजाक्षर है और तीसरे पाद एषासौ इत्यादि में तीसरा अक्षर 'सौं' बीजाक्षर है । सब मिलकर ऐं क्लीं सौँ यह मूलमन्त्र हुआ । 'हस्थित' इस मूलपाठ से कितनेक पण्डित कहते हैं कि सौ बीजाक्षर को हकारसहित उच्चारण करना जैसे सौ । कौल मुनि के मत में हकार को गगन माना है, गगन नाम अनुस्वार का
१. कोई पुरुष शङ्का करे कि शक्तिरूप देवी का नाम कहीं त्रिपुरभैरवी कहीं त्रिपुरा और कहीं त्रिपुरललिता आदि आते हैं सो यह स्तोत्र कौन सी देवी की महिमा को प्रतिपादन करता है तब उसका प्रत्युत्तर यह है कि, इस स्तोत्र में श्रीत्रिपुरा देवी का ही वर्णन है और मन्त्र, आसन, पूजा, मूर्ति, ध्यान आदि के भेद से उस श्रीत्रिपुरा देवी के ही त्रिपुरभैरवी, त्रिपुरभारती, नित्यत्रिपुरभैरवी, त्रिपुरा आदि नाम भेद है और वही श्रीत्रिपुरा देवी हर किसी मूर्ति की उपासना करनेवाले पुरुष को फल देती है । जैसे कि, एक स्थान पर लिखा है कि गुरु समान कोई दानी नहीं है । शङ्कर समान कोई देव नहीं है। कौल मुनि के समान कोई उत्तम योगी नहीं है । त्रिपुरा देवी की मन्त्रविद्या समान कोई विद्या नहीं है । स्त्री के समान कोई हितकारी नहीं है। वेद के समान कोई शास्त्र नहीं है । बीज (वीर्य) के समान कोई सृष्टिकर्ता नहीं है । और त्रिपुरादेवी की मन्त्रविद्या समान कोई विद्या नहीं है ।
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