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________________ सरस्वती के ध्यान से स्थिर हो जाती है। स्थिरता भी माद्यत्कुञ्जरकर्णतालतरला होती है अर्थात् इतनी लक्ष्मी उपलब्ध होती है कि घर के आंगन में मदमत्त हाथी के कर्णताल चलने लगते है । यहाँ विरोध-अलंकार है । आजकल कविताविश्व अलंकार प्रधान नही रहा, भावधारा कविता की प्रधान संपदा मानी गई है । लघ्वाचार्य ने अपनी भावधारा प्रचुर आवेश से व्यक्त की है। अल्पप्रसिद्धवृत्त आचार्य श्रीसोमतिलकसूरिजी ने इस मन्त्रगर्भित स्तोत्र की व्याख्या बनाइ है, जो इस सम्पादन की आधारशिला है । क्योंकि त्रिपुराभारतीस्तव कोई जैनपरम्परागत स्तोत्र नही है, व्याख्याकार ने त्रिपुराभारती पर लिखा तो स्तव परम्परा के साथ कुछ सम्बद्ध हुआ । मुख्यतः व्याख्या मन्त्र और तन्त्र के विषय पर ही है । इस ग्रन्थ के सम्पादक मेरे वडील भ्राता परम पूज्य बहुश्रुत मुनिप्रवर श्री वैराग्यरतिविजयजी महाराज ने मन्त्रतन्त्र की परम्परा और जैनधर्म का सर्वांगीण विश्लेषण प्रस्तावना में किया है । व्याख्याकार ने काव्यतत्त्व व्याकरण आदि की दृष्टि से जो उन्मेष दिखाये है, हम उन्हें देखेंगे। तीसरी स्तुति में 'सूक्तिसुधारसद्रवमुचः' प्रयोग है । आचार्यश्री ने व्याख्या में विवेक किया-यद्यपि च रस-द्रव्योरेकार्थता, तथाप्यत्र विशेषः । अमृतं हि देवभोज्यं रसरूपमेव भवति । तस्यापि द्रवः सारोद्धारो निर्यासः इत्यर्थः । सुधा का रस देवो का भोजन है । उसका भी अर्क जो अतिमधुर होता है वह है द्रव । रस प्रवाही है तो कुछ द्रव घट्ट, दूध और मलाई जितना यह फर्क है । मूलकारके हार्द को स्पष्ट करना व्याख्याकार का कर्तव्य है । आचार्यश्री ने यह सफलता से निभाया है । सातवी स्तुति में मूलकार ने देवी के चार हाथ है, बताया नही । व्याख्याकार ने स्पष्ट किया : "चतुर्भुजत्वाद् भगवत्याः पुस्तकाभयदानाऽक्षमाला-वरव्यग्रकरत्वं युक्तम्" । (भगवती के हाथ में पुस्तक, अभयदान, अक्षमाला और वर इन चारो की उपस्थिति स्तुति में बताई है, क्योंकि भगवती के हाथ चार है ।) 36 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001966
Book TitleTripurabharatistav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan Puna
Publication Year2008
Total Pages122
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size6 MB
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