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आठवी स्तुति में "तेषां वक्त्राम्बुजात्" वाक्यप्रयोग है । आचार्यश्री स्पष्टता करते है : वक्त्राम्बुजादित्यत्र जातिव्यपेक्षया एकवचनमिति । अनेक ध्याताओ बहुवचन में और उनके वक्त्राम्बुज एकवचन में हो नही सकते लेकिन एकवचन में जाति की व्यपेक्षा है । फलतः अनेक रूप अनेकविध लोग भी भले भगवती का ध्यान करे । फलप्रसाद समान मिलता है, यह ध्वनि प्रतीत हो सकता है ।
___ नवमी स्तुति में आचार्यश्री लिखते है : "अनन्यमनसः" इति पदमुभयत्रापि डमरूकमणिन्यायेन प्रयोज्यम् । देवी का ध्यान अनन्यमना हो कर करनेवाला अनन्यमन वशीकारी हो सकता है ।
अग्याहरवीं स्तुति में आचार्यश्री ने "आर्भटी" शब्द की व्याख्या दी है । 'आर्भट्या-उद्धतया वृत्त्या' उत्कटवृत्ति का ध्यान आर्भटीका भावार्थ है ।
___ आगे फिर शब्द प्रयोग में आरभटीशब्दविशेषस्तु सात्त्वतीकैशिकी-प्रमुखवृत्तयो हि शान्ताः । आर्भटीवृत्तिस्तु वीररसाश्रया । आर्भटीआरभटीशब्दविशेषस्तु वर्षावरिषादिशब्दवद् न दोषः ।
आर्भटी शब्द, आरभटी से आया है। उसे दोष न माने । मूलकार को समर्थित करना जैनाचार्यों की प्रसिद्ध परम्परा है । आर्भटी शब्द को ग्राम्य कहकर अपनी वैदुषीका टंकार करना आचार्यश्री ने पसंद नहि किया ।
तेरहवी स्तुति में चण्डि ! सम्बोधन की स्पष्टता देखो :
चन्डीत्यामन्त्रणं, न सुखाराध्या भगवतीति रौद्रशब्दोपादानम् । माता को चंडी कहना इसलिये जरुरी था, कि इस माता की आराधना कष्टसाध्य
व्याख्या के साथ पंजिकावृत्ति भी सम्पादित की गई है। दोनो टीकाए मन्त्रसन्दर्भ से सम्बद्ध है । इसलिये यहाँ छन्दोनिर्देश, अलंकारवर्णन या रसानुभूति का कोई स्थान नही है ।
श्रुतदेवता का संनिधान चतुर्दशपूर्व में था । पूर्वशास्त्र मन्त्रगर्भित थे ।
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