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होता है । सरस्वती के दर्शन आह्लादजनक है । सच है, सरस्वती का संस्तव भी तो आह्लादजनक होना चाहिये । सरस्वती के हाथ में पुस्तक है, माला है, सरस्वती के हाथ आशिष दे रहे है । सरस्वती अतिशय सौंदर्यवती है और सरस्वती की आँखे कृपारस से छलक रही है । इतना कहकर रुक जाना सामान्य कवित्व है, लघ्वाचार्य इस आलम्बनविभाव से भावोन्मत्त हो कर कहते
ये त्वामम्ब ! न शीलयन्ति मनसा तेषां कवित्वं कुतः ॥ "तेरा ध्यान न जो करे, भगवती कैसे बने वो कवि ?"
यह अर्थान्तररन्यास का असामान्य उदाहरण है, रसधारा अपने आप अलंकार बना लेती है । अर्थयोजना से अलंकार तक पहुँचना साधारण कक्षा है । रससिक्त अलंकार ही उत्तमकक्षा है। लध्वाचार्य अपनी कला का यश सरस्वती को ही देते है । सरस्वती का ध्यान वाक्कलाका प्रधान कारण है ।
ये त्वां पाण्डुरपुण्डरीकपटलस्पष्टाभिरामप्रभां, सिञ्चन्तीममृतद्रवैरिव शिरो ध्यायन्ति मूर्ध्नि स्थिताम् । अश्रान्तं विकटस्फुटाक्षरपदा निर्याति वक्त्राम्बुजात्;
तेषां भारति ! भारती सुरसरित्कल्लोललोमिभिः ॥
धवलकमल की सुन्दरता से समलंकृत सरस्वती मेरे मस्तक पर बिराजमान है। मेरे शिर पर अमृतवर्षा हो रही है, सरस्वती द्वारा । यह अनुभव यह ध्यान मुखरूपी कमल से गंगा के लोलविलोल सहज तरंगों की तरह वाणी का प्रवाह निर्मित करता है ।
कमल से सुरभि नीकले और नदी नीकल पड़े, फर्क है, यहाँ कमल से गंगा नीकल रही है, यह सादृश्य समुचित नही है और यही कविता है । उत्प्रेक्षा या अतिशयोक्ति ।।
आगे कवि कहते है :
माद्यत्कुञ्जरकर्णतालतरलाः स्थैर्य भजन्ते श्रियः ॥१०॥ लक्ष्मी मदमत्त हस्ति के कर्णताल की तरह अस्थिर है, लेकिन
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