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से साधना मार्ग में विभिन्नता होना स्वाभाविक है । 'सम्प्रदाय के भेद से त्रिपुरा देवी के नाम में भेद देखने मिलते है । व्याख्याकार सूरिदेव ने प्रथम पद्य में त्रिपुरादेवी के नामभेद के विषय में निर्देश किया है ।
अथ किमेषा त्रिपुरा उत त्रिपुर भैरवी ?... तत्कथमिति सत्यम् ... बहवोऽस्याः उद्धारप्रकाराः सम्प्रदायाः पूजामार्गाश्च.... इत्यतः क्वचित् मन्त्रोद्धारभेदात् क्वचिद् आसनभेदात्, क्वचित् सम्प्रदायभेदात्, क्वचित् पूजाभेदात् क्वचिन् मूर्तिभेदात् क्वचिद् ध्यानभेदात् बहुप्रकारा एषा त्रिपुरादेवी क्वचित् त्रिपुरभैरवी, क्वचित् त्रिपुरभारती, क्वचित् नित्यत्रिपुरभैरवी, क्वचित् त्रिपुरललिता, क्वचिद् अपरेण नाम्ना, क्वचित् त्रिपुरैव उच्यते ।
तन्त्र शास्त्र में बीजभूत मन्त्राक्षरो को 'पुर' संज्ञा दी है । ऐं क्लीँ और सौं यह तीन वर्ण सरस्वती के बीजमन्त्र है । यह तीन 'पुर' की अधिष्ठात्री होने के कारण सरस्वती देवी का नाम 'त्रिपुरा' है । स्तोत्र में भारती, वाग्वादिनी इत्यादि शब्दो द्वारा 'त्रिपुरा' का उल्लेख हुआ है, प्रथम पद्य में 'वाङ्मयी' शब्द से त्रिपुरा देवी सरस्वती का ही नाम है यह लघुराज ने स्वयं प्रमाणित किया है । पंजिकावृत्ति में भी त्रिपुरा पद का सरस्वती अर्थ उपलब्ध होता है ।"
समग्र स्तोत्र में श्रीत्रिपुरादेवी का महिमागान कवि ने अनूठे ढंग से प्रस्तुत किया है । त्रिपुरादेवी के मूलमन्त्र, बीजाक्षर, आम्नाय, ध्यान, पूजाविधि इत्यादि स्तोत्र में गर्भितरूपेण अन्तनिर्हित है । तान्त्रिक साधनामार्ग सम्पूर्णत: गुर्वाधीन है । केवल गुरु ही मन्त्र की पूर्ण प्रयोग विधि जानता है । किसी शास्त्र में मन्त्र का प्रयोग विधान शतप्रतिशत प्रगट नही किया जाता अपितु बहुतांश गुप्त रखा जाता है । केवल शास्त्र के शब्दो का आधार लेकर साधना करने वाला साधक विपरीत फल पा सकता है । व्याख्याकार श्री सोमतिलकसूरिजीने भी अपनी व्याख्या में अनेक बातों के गुरुपरम्परा के अधीन
१. पद्य : २० - त्रिपुरेति नाम्ना भारत्याः सरस्वत्याः इयं स्तुति:.... बोद्धव्या ।
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