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सहायक है।
___जैन धर्म के तन्त्रप्रयोग का यह संक्षिप्त निरूपण है । विशेष जिज्ञासुओं को निवेदन है कि वे अधिकृत शास्त्रों का अवगाहन करे । स्तोत्र :
देवता की प्रसन्नता हेतु तन्त्रप्रयोग में जाप-यन्त्रपूजन-होम-पूजाविधि के साथ साथ 'स्तुति' का भी प्रयोग होता है । छंदोबद्ध काव्य में अभीष्ट देवता की स्तुतिपरक शब्द रचना को 'स्तोत्र' कहते है । साधारण स्तोत्र में सिर्फ देव विशेष का महिमागान होता है। तन्त्रशास्त्रीय स्तोत्र में मन्त्र-बीजआम्नाय-पूजाविधि-रहस्य का प्रत्यक्ष या परोक्ष उल्लेख रहेता है । इसलिये तन्त्रशास्त्रीय स्तोत्रो का प्रभाव भी अधिक रहेता है ।
'श्रीत्रिपुराभारतीस्तव' ऐसा ही एक प्राचीनतम तन्त्रशास्त्रीय स्तोत्र है । व्याख्याकारों में उसका प्रचलित नाम 'लघुस्तवराज' है । मूलतः यह स्तोत्र त्रिपुरादेवी का है । फिरभी 'लघुस्तव' नामाभिधान का कारण यह कहा जाता है कि स्तोत्र के कर्ता का नाम लघ्वाचार्य है । व्याख्याकार श्री सोमतिलकसूरिजी ने स्तोत्र की अंतिम पुष्पिका में यह स्तोत्र के कर्ता का लघ्वाचार्य के नाम से उल्लेख किया है । स्तोत्र के अंतिम पद्य में 'लघु' शब्द का श्लेष है जिससे कर्ता का नाम ध्वनित होता है । तीसरा कारण व्याख्या की उत्थानिका में है कि एक 'लघु' बालक ने इस स्तोत्र की रचना की है । इस विषय का अंतिम निष्कर्ष ऐतिहासिक संशोधन के बाद ही आ सकता है। त्रिपुराभारतीस्तवः की विषयवस्तु :
प्रस्तुत स्तोत्र की अधिष्ठात्री भगवती त्रिपुरादेवी है । तन्त्र-शास्त्र में त्रिपुरादेवी के अनेक नाम प्रचलित है । तन्त्रशास्त्रीय मन्त्र साधना विधि गुप्त होता है और केवल गुरुमुख से ही प्राप्त होता है । इसलिये गुरु के भेद
१. इति श्री लघ्वात्वार्यविरचितः लघुस्तवराजः ।
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