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तन्त्रदर्शन तन्त्रप्रयोग
तन्त्रदर्शन में उद्देश्य शिवतत्त्व निर्दोष और निर्विकारी है । तन्त्र प्रयोग में उद्देश्य सदोष और विकारी है । तन्त्र दर्शन में उपाय मुक्ति के विधि चर्यादि है । तन्त्रप्रयोग में सिद्धि के उपाय होम - बलिआदि जो हिंसा से व्याप्त है | तन्त्रदर्शन की साधना पाशमुक्ति के लिये है । तन्त्रप्रयोग की साधना दुःख मुक्ति के लिये है ।
आत्मविशुद्धि का पक्षपाती है ऐहिक आकांक्षा का पक्षपाती है ।
ऐहिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये तन्त्रप्रयोग का प्रचलन हुआ है । तन्त्रप्रयोग में अ- भौतिक दैवी तत्त्वो की शक्ति का सहारा लिया जाता है । देव की शक्ति का उपयोग करने के लिये देव को प्रसन्न करना जरूरी है, उनका सम्पर्क करना जरूरी है, उनका ध्यान आकृष्ट करना जरूरी है । तन्त्रप्रयोग दैवी शक्ति के जागरण का मार्ग है । मन्त्र और यन्त्र के माध्यम से देव का सम्पर्क किया जाता है, देव के साथ अनुसन्धान रखने वाले शक्ति सम्पन्न शब्द 'मन्त्र' से अभिप्रेत है । देव के साथ सम्बन्ध रखनेवाली आकृतिविशेष 'यन्त्र' है । प्रसन्न देव ही ईप्सित कार्यो का सम्पादन करने में सहायक बनते है इसलिये देवविशेष को प्रसन्न करने वाली पूजाविधि का प्रयोग होता है । पूजाविधि में द्रव्यार्पण एवं होम आदि होते है । निश्चल मन:पूर्वक मन्त्र जाप करने से देव वश में आते है ।
देव की दो कोटियाँ है । उच्च और निम्न । शांति-पुष्टि आदि उच्च कार्यो में सहाय करनेवाले देव उच्च कोटि के है । इन देवो की पूजाविधि भी निर्दोष होती है । मारणादि हीन कार्यों में सहाय करने वाले देव हीन कोटि के है । हीन द्रव्य, हीन आचार, हीन पूजाविधि से ये प्रसन्न होते है और क्रूर कर्मी होते है ।
कार्य या फल की अपेक्षा से तन्त्र प्रयोग में साधक के दो वर्ग हो गये (१) दक्षिण मार्गी (२) वाममार्गी । उच्च देव की आराधना और सौम्य साधनामार्ग अपनाने वाले तान्त्रिक दक्षिण मार्गी होते है, इनसे ठीक विपरीत वाममार्गी होते है । वाम मार्ग में पंचमकार का सेवन किया जाता है । मद्य
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