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मांस-मत्स्य-मुद्रा-मैथुन यह पंचमकार है । दक्षिण मार्ग में पंचमकार का सात्त्विक अर्थ किया जाता है । हालाकि पंचमकार का सेवन अनिवार्य नहीं माना जाता ।
देवो को प्रसन्न करके उनके द्वारा इप्सित कार्यसिद्धि की जाती है । जिसे कर्म कहते है । कर्म के दो भेद है । सौम्य कर्म और क्रूर कर्म ।
शान्ति (रोगादिक का शमन) पुष्टि (बलवर्धक प्रयोग) तुष्टि (प्रसन्नता आपादन) वशीकरण (आकर्षण) इत्यादि सौम्य कर्म है । मरण (वध) स्तंभन (गतिनिरोध) उच्चाटन (मानहानि) विद्वेषण (द्वेषजनन) मोहन (किंकर्तव्यमूढता जनन) इत्यादि क्रूर कर्म है । 'तन्त्र' इतिहास :
तान्त्रिको की दृष्टि से तन्त्र प्रयोग के प्रणेता भगवान् 'शिव' है । प्रारंभकाल में सिर्फ एक शैवतन्त्र ही प्रचलित था । शाक्त तन्त्र एवं वैष्णव तन्त्र का प्रयोग बाद में होने लगा । धीरे धीरे शक्ति की उपासना अधिक होने लगी । इस कारण से शैवतन्त्र और वैष्णवतन्त्र का प्रचलन मंद हो गया । वर्तमान में केवल शाक्त सम्प्रदाय ही प्रचलित है । गौड़, बंग और काश्मीर शाक्तों की तन्त्रभूमि है।
१. मायामलादिशयनान् मोक्षमार्गनिरुपणम् ।
अष्टदुःखादिविरहान् मत्स्येति परिकीर्तितम् ॥ माङ्गल्यजननाद् देवि ! संविदानन्ददानतः । सर्वदेवप्रियत्वाच्च मांस इत्यिभिधीयते ॥ सुमनः सेवितत्वाच्च राजवत् सर्वदा प्रिये । आनन्दजननाद् देवि सुरेति परिकीर्तिता ॥ मुदं कुर्वति देवाना मनांसि द्रावयन्ति च । तस्मान्मुद्रा इति ख्याता दर्शिता व्याकुलेश्वरि । पञ्चमं देवि सर्वेषु मम प्राणप्रियं भवेत् । पञ्चमेन विना देवि चण्डिमन्त्रं कथं जपेत् । आनन्दं परमं ब्रह्म मकारास्तस्य सूचकाः ॥
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