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________________ योग : योग, चित्त की सहायता लेकर जीवात्मा का ईश्वर के साथ सम्बन्ध जोड देता है । योग के दो प्रकार है । क्रियायोग और क्रियोपरम योग । जप-ध्यानादि क्रियायोग है और निष्क्रिय अवस्था की साधना क्रियोपरम योग है । परमेश्वर में अनन्य भक्ति, तत्त्वज्ञान, शरणागति आदि क्रियोपरम योग है। विधि : विधि' के आचरण द्वारा जीवात्मा परमेश्वर की समीप पहुंचता है। .. विधि के दो भेद है । मुख्य विधि और गौण विधि मुख्य विधि को चर्या कहते है । चर्या के भी दो प्रकार है । व्रत चर्या और द्वारभूत चर्या । व्रतचर्या : दिन में तीन बार भस्म से स्नान करना, भस्म में शयन करना, उपहार (नियम) का पालन, जप, प्रदक्षिणा वि० चर्या में है । जोर जोर से हंसना, गाना, नृत्य करना, हुहुहु शब्द का नाद, नमस्कार और जाप यह छ: क्रिया उपहार के अन्तर्गत है । उपहार स्वरूप यह पाशमुक्ति उपाय शिष्ट जनाचरण से विरुद्ध प्रतीत होता है । पाशमुक्ति और उपहार के बीच क्या कार्य कारण भाव है यह प्रश्न का उत्तर कठिन है । चर्यागत उपहार के लिये सूचना दी गई है कि उपहार का पालन एकांत में ही करना चाहिए अन्यथा लोक निन्दा आदि से साधक का चित्त विक्षिप्त हो सकता है । इसीलिये यह साधना विधि गूढ रखी जाती है । वस्तुतः लोक विपरीत साधना मार्ग, एकांत और गुप्तता यही तन्त्र के वाममार्ग के बीज बन गये ऐसा अनुमान करने में कोई बाधा नहीं । चर्या का यथाविधि सम्पादन करने के लिये द्वारभूत छ: कर्मो का उपदेश है। १. चित्तद्वारेण आत्मेश्वरसम्बन्धहेतुः योगः । स च द्विविधः क्रियालक्षण: क्रियोपरमलक्षणः च । तत्र जपध्यानाधिरूपः क्रियायोगः । क्रियोपरम-लक्षणः तु निष्ठासंविद्गत्यादिलक्षणः । 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001966
Book TitleTripurabharatistav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVairagyarativijay
PublisherPravachan Prakashan Puna
Publication Year2008
Total Pages122
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size6 MB
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