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________________ ( ८५ ) देवाधिदेव ईश्वर है। ईश्वर जीवों के कर्मानुसार उन्हें फल देता है, अपनी इच्छा से नहीं। इस समन्वय को स्वीकार करने वाले वैदिक दर्शनों में न्यायवैशेषिक, चेदान्त और उत्तरकालीन सेश्वर सांख्यदर्शन का समावेश है। वैदिक परंपरा के लिए अदृष्ट अथवा कर्मविचार नवीन है और बाहर से उसकी आयात हुई है, इस बात का एक प्रमाण यह भी है कि वैदिक लोग पहले आत्मा की शारीरिक, मानसिक और वाचिक क्रियाओं को ही कर्म मानते थे। तत्पश्चात् वे यज्ञादि बाह्य अनुष्ठानों को भी कर्म कहने लगे। किन्तु ये अस्थायी अनुष्ठान स्वयमेव फल कैसे दे सकते हैं ? उनका तो उसी समय नाश हो जाता है। अतः किसी माध्यम की कल्पना करनी चाहिए। इस आधार पर मीमांसा दर्शन में 'अपूर्व नाम के पदार्थ की कल्पना की गई। यह कल्पना वेद में अथवा ब्राह्मणों में नहीं है। यह दार्शनिक काल में ही दिखाई देती है। इससे भी सिद्ध होता है कि अपूर्व के समान अदृष्ट पदार्थ की कल्पना मीमांसकों की मौलिक देन नहीं परन्तु वेदेतर प्रभाव का परिणाम है। इसी प्रकार वैशेषिक सूत्रकार ने अदृष्ट-धर्माधर्म के विषय में सूत्र में उल्लेख अवश्य किया है किंतु उस अदृष्ट की व्यवस्था उसके टीकाकारों ने ही की है। वैशेषिक सूत्रकार ने यह नहीं बताया कि अदृष्ट-धर्माधर्म क्या वस्तु है, इसीलिए प्रशस्तपाद को उसकी व्यवस्था करनी पड़ी और उन्होंने उसका समावेश गुणपदार्थ में किया। सूत्रकार ने अदृष्ट को स्पष्टतः गुणरूपेण प्रतिपादित नहीं किया। फिर भी इसे आत्मा का गुण क्यों माना जाए, इस बात का स्पष्टीकरण प्रशस्तपाद ने किया है। इससे प्रमाणित होता है कि वैशेषिकों की पदार्थ व्यवस्था में अदृष्ट एक नवीन तत्त्व है। 'प्रशस्तपाद पृ० ४७, ६३७, ६४३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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