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( ८४ ) जब वेदवादी ब्राह्मणों का कर्मवादियों से संपर्क हुआ, तब देववाद के स्थान पर तत्काल ही कर्मवाद को आरूढ़ नहीं किया गया होगा। जिस प्रकार पहले आत्मविद्या को गूढ़ एवं एकांत में विचार करने योग्य माना गया था, उसी प्रकार कर्मविद्या को रहस्यपूर्ण और एकान्त में मननीय स्वीकार किया गया होगा। जिस प्रकार आत्मविद्या के कारण यज्ञों से लोगों की श्रद्धा हटने लगी थी, उसी प्रकार कर्मविद्या के कारण देवों संबंधी श्रद्धा भी क्षीण होने लगी। इसी प्रकार के किसी कारणवश याज्ञवल्क्य जैसे दार्शनिक आर्तभाग को एकान्त में ले जाते हैं और उसे कर्म का रहस्य समझाते हैं। उस समय कर्म की प्रशंसा करते हुए वे कहते हैं कि पुण्य करने से मनुष्य श्रेष्ठ बनता है और पाप करने से निकृष्ट'। .
वैदिक परम्परा में यज्ञकर्म तथा देव दोनों की मान्यता थी। जब देव की अपेक्षा कर्म का महत्त्व अधिक माना जाने लगा, तब यज्ञ का समर्थन करने वालोंने यज्ञ और कर्मवाद का समन्वय कर यज्ञ को ही देव बना दिया और वे यह मानने लगे कि यज्ञ ही कर्म हैं तथा इसी से सब फल मिलते हैं। दार्शनिक व्यवस्था काल में इन लोगों की परम्परा का नाम मीमांसक दर्शन पड़ा। किन्तु वैदिक परंपरा में यज्ञ के विकास के साथ साथ देवों की विचारणा का भी विकास हुआ था। ब्राह्मण काल में प्राचीन अनेक देवों के स्थान पर एक प्रजापति को देवाधिदेव माना जाने लगा। जिन लोगों की श्रद्धा इस देवाधिदेव पर अटल रही, उनकी परंपरा में भी कर्मवाद को स्थान प्राप्त हुआ है और उन्होंने भी प्रजापति तथा कर्मवाद का समन्वय अपने ढंग से किया है। वे मानते हैं कि जीव को अपने कर्मानुसार फल तो मिलता है किंतु इस फल को देने वाला
'बृहदा० ३-२-१३.
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