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( ८३ ) होने की कल्पना की गई है। अनादि संसार के जिस सिद्धान्त को बाद में सभी वैदिक दर्शनों ने स्वीकार किया, वह इन दर्शनों की उत्पत्ति के पूर्व ही जैन एवं बौद्ध परंपरा में विद्यमान था। किंतु वेद अथवा उपनिषदों में इसे सर्वसम्मत सिद्धान्त के रूप में स्वीकृत नहीं किया गया। इससे पता चलता है कि इस सिद्धान्त का मूल वेदबाह्य परंपरा में है। यह वेदेतर परंपरा भारत में आर्यों के आगमन से पहले के निवासियों की हो सकती है और उनकी इन मान्यताओं का ही संपूर्ण विकास वर्तमान जैन परंपरा में संभव है।
जैन परंपरा प्राचीन काल से ही कर्मवादी है, उसमें देववाद को कभी भी स्थान प्राप्त नहीं हुआ। अतः कर्मवाद की जैसी व्यवस्था जैन ग्रंथों में दृष्टिगोचर होती है वैसी विस्तृत व्यवस्था अन्यत्र दुर्लभ है। अनेक जीवों के उन्नत और अवनत जितने भी प्रकार संभव हैं, और एक ही जीव की, आध्यात्मिक दृष्टि से संसार की निकृष्टतम अवस्था से लेकर उस के विकास के जितने भी सोपान हैं, उन सब में कर्म का क्या प्रभाव है तथा इस दृष्टि से कर्म की कैसी विविधता है, इन सब बातों का प्राचीनकाल से ही विस्तृत शास्त्रीय निरूपण जैसा जैन शास्त्रों में है, वैसा अन्यत्र दृग्गोचर होना शक्य नहीं। इससे स्पष्ट है कि कर्म विचार का विकास जैन परम्परा में हुआ है और इसी परम्परा में उसे व्यवस्थित रूप प्राप्त हुआ है। जैनों के इन विचारों के स्फुलिंग अन्यत्र पहुंचे
और उसी के कारण दूसरों की विचारधारा में भी नूतन तेज प्रकट हुआ। __वैदिक विचारक यज्ञ की क्रिया के चारों ओर ही समस्त विचारणा का आयोजन करते हैं। जैसे उनकी मौलिक विचारणा का स्तम्भ यज्ञ क्रिया है, वैसे ही जैन विद्वानों की समस्त विचारणा कर्म पर आधारित है। अतः उन की मौलिक विचारणा की नींव कर्मवाद है।
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