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इस प्रकार वैदिकों ने यज्ञ अथवा देवाधिदेव के साथ अदृष्टकर्मवाद का समन्वय किया है। किंतु याज्ञिक यज्ञ के अतिरिक्त अन्य कर्मों के विषय में विचार नहीं कर सके और ईश्वरवादी भी ईश्वर की सिद्धि के लिए जितनी शक्ति का व्यय करते रहे उतनी वे कर्मवाद के रहस्य का उद्घाटन करने में नहीं लगा सके। अतः कर्मवाद मूलरूप में जिस परंपरा का था, उसी ने उस वाद पर यथाशक्य विचार कर उसकी शास्त्रीय व्यवस्था की। यही कारण है कि कर्म की जैसी शास्त्रीय व्यवस्था जैनशास्त्रों में है, वैसी अन्यत्र उपलब्ध नहीं होती। अतः यह स्वीकार करना पड़ता है कि कर्मवाद का मूल जैन परंपरा में और उससे पूर्वकालीन आदिवासियों
__ अब कर्म के स्वरूप का विशेष वर्णन करने से पहले यह उचित होगा कि कर्म के स्थान में जिन विविध कारणों की कल्पना की गई है, उन पर किंचित् विचार कर लिया जाए। उसके बाद उसे सम्मुख रखते हुऐ कर्म का विवेचन किया जाए। कालवाद
विश्वसृष्टि का कोई न कोई कारण होना चाहिए, इस बात का विचार वेदपरंपरा में विविधरूप में हुआ है। किंतु प्राचीन ऋग्वेद से यह प्रगट नहीं होता कि उस समय विश्व की विचित्रता-जीवसृष्टि की विचित्रता के निमित्त कारण पर भी विचार किया गया हो । इस विषय का सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताश्वतर (१. २.) में उपलब्ध होता है। उसमें काल, स्वभाव, नियति, यहच्छा, भूत और पुरुष इनमें से किसी एक को मानने अथवा सब के समुदाय को मानने वाले वादों का प्रतिपादन है। इससे ज्ञात होता है कि उस समय चिन्तक कारण की खोज में तत्पर हो गए थे और विश्व की विचित्रता की व्याख्या विविध रूप से करते थे। इन वादों में
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