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( ७२ ) में जो किंचित् मतभेद है उसका उल्लेख भी आवश्यक है। उपनिषदों में ब्रह्म को चैतन्य रूप के साथ साथ आनन्द रूप भी माना है। नैयायिकों ने ईश्वर में तो आनन्द का अस्तित्व स्वीकार किया है किंतु मुक्तात्मा में नहीं। बौद्धों ने निर्वाण में आनन्द की सत्ता स्वीकृत की है। जैनों ने आनन्द के अतिरिक्त नैयायिकों के ईश्वर के समान शक्ति अथवा वीर्य भी माना है। जैनों ने चैतन्य का अर्थ ज्ञान-दर्शन शक्ति किया है किंतु नैयायिक-वैशेषिकमत में मुक्तात्मा में ज्ञान-दर्शन नहीं होते। सांख्यमत में चित् शक्ति पुरुष में है, फिर भी उस में ज्ञान नहीं होता किंतु द्रष्टुत्व होता है। इन सभी मतभेदों का समन्वय असंभव नहीं।
जब हम इस विषय पर विचार करते हैं कि मुक्तात्मा में आनन्द का ज्ञान से पृथक् क्या स्वरूप है, तब यही निष्कर्ष निकलता है कि आनन्द भी ज्ञान की ही एक पर्याय है। जैनाचार्यों ने इसे स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है। बौद्ध दार्शनिकों ने भी ज्ञान और सुख को सर्वथा भिन्न नहीं माना। वेदान्त मत में भी एक अखंड ब्रह्म तत्त्व में ज्ञान, आनन्द, चैतन्य इन सब का वस्तुतः भेद करना अद्वैत के विरोध के समान ही है । नैयायिक चैतन्य और ज्ञान में भेद का वर्णन करते हैं परन्तु जब हम यह देखते हैं कि उन्हों ने नित्य मुक्त ईश्वर में नित्य ज्ञान स्वीकार किया है, तब हमें यह मानना पड़ता है कि वे इस भेद को सर्वथा स्थिर नहीं रख सके । पुनश्च मुक्तात्मा चेतन होकर भी ज्ञान हीन हो, तो इस चैतन्य का स्वरूप भी एक समस्या का रूप धारण कर लेता है। यहां यदि हम याज्ञवल्क्य के मैत्रेयी के प्रति कहे गए कथन पर कि 'न तस्य प्रेत्य संज्ञा अस्ति'-मृत्यूपरांत उसकी कोई संज्ञा नहीं होती-सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो इस का
१ सर्वार्थसिद्धि १०. ४.
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