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समाधान हो जाता है । यह ऐसी अवस्था है जिसका नामकरण नहीं किया जा सकता । यदि इसे ज्ञान कहा जाए तो ज्ञान के विषय में साधारण जन का जो विचार है, वही उनके मन में स्थान प्राप्त करेगा अर्थात् इन्द्रियों अथवा मन के द्वारा होने वाला ज्ञान । परन्तु मुक्तात्मा में इन साधनों का अभाव होता है अतः उसके ज्ञान को ज्ञान कैसे माना जाए ? आत्मा स्वयं प्रतिष्ठित है, वह बाहर क्यों देखे ? बहिर्वृत्ति क्यों बने ? और यदि आत्मा बहिवृत्ति नहीं होता तो उसे ज्ञानी कहने की अपेक्षा चैतन्यघन कहना अधिक उपयुक्त है । नैयायिकों ने ज्ञान की व्याख्या इस प्रकार की है : - आत्मा का मन के साथ सन्नि कर्ष होता है, मन का इन्द्रिय के साथ तथा इन्द्रिय का बाह्य पदार्थ के साथ सन्निकर्ष होता है, तब ज्ञान की उत्पत्ति होती है । ज्ञान की इस व्याख्या के अनुसार यह बात स्वाभाविक है कि नैयायिक मुक्तावस्था में ज्ञान की सत्ता न मानें । अर्थात् उनकी ज्ञान की परिभाषा ही भिन्न है । परिभाषा के भेद के कारण तत्त्व में कुछ भी भेद नहीं पड़ता अन्यथा नैयायिकों के मत में जड़ पदार्थ और चैतन्य पदार्थ में क्या भेद रह जाएगा ? अतः यह बात माननी पड़ेगी कि जड़ से भेद कराने वाला आत्मा में कोई तत्त्व अवश्य है जिसके आधार पर नैयायिकों ने उसे चेतन माना है । उस तत्त्व का नाम चैतन्य है । आत्मा को चेतन मानने के विषय में उनका किसी भी दार्शनिक से मतभेद ही नहीं है। उनकी ज्ञान की परिभाषा अलग है, अतः उन्होंने ज्ञान शब्द से चैतन्य का बोध कराना उचित नहीं समझा । वेदान्ती जब अधिक सूक्ष्म विचार करने लगे तब वे 'चैतन्य'' को चैतन्य शब्द से प्रतिपादित करने के लिए उद्यत न हुए और 'नेति नेति' कह कर उसका वर्णन करने लगे। यह बात लिखी जा चुकी है कि अन्य दार्शनिकों ने भी ऐसा ही किया । भाषा की
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