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________________ ( ७१ ) सुखरूप है। जिस प्रकार उपनिषदों में ब्रह्मानन्द को आनन्द की पराकाष्ठा माना गया है, उसी प्रकार निर्वाण का आनन्द भी आनन्द की पराकाष्ठा है। इस तरह बौद्धों के मतानुसार भी निर्वाण में ज्ञान और आनन्द का अस्तित्व है। यह ज्ञान और आनन्द असंस्कृत अथवा अज कहे गए हैं अतः नैयायिकों के ईश्वर के ज्ञान और आनन्द से वस्तुतः इनका कोई भेद नहीं। यही नहीं, प्रत्युत वेदान्त सम्मत ब्रह्म की नित्यता और आनन्दमयता तथा बौद्धों के निर्वाण में भी भेद नहीं है। सांख्य मत में भी नैयायिकों द्वारा मान्य आत्मा के समान मुक्तावस्था में विशुद्ध चैतत्य ही शेष रहता है। नैयायिक मत में ज्ञान, सुखादि आत्मा के गुण हैं किन्तु उनकी उत्पत्ति शरीराश्रित है। अतः शरीर के अभाव में उन्होंने जैसे उन गुणों का अभाव स्वीकार किया, वैसे ही सांख्य मत को यह स्वीकार करना पड़ा कि ज्ञान, सुखादि प्राकृतिक धर्म होने के कारण प्रकृति का वियोग होने पर वे मुक्तात्मा में विद्यमान नहीं रहते और पुरुष मात्र शुद्ध चैतन्य स्वरूप स्थिर रहता है। सांख्य मानते हैं कि पुरुष को जब कैवल्य की प्राप्ति होती है तब वह मात्र शुद्ध चैतन्यरूप होता है। गणधर वाद के पाठकों को ज्ञात हो जाएगा कि मुक्तात्मा के विशुद्ध चैतन्य स्वरूप में प्रतिष्ठित रहने की मान्यता के विषय में जहां सांख्य-योग न्याय, वैशेषिक एकमत हैं वहां जैन भी इस मत से सहमत हैं। इस सामान्य मान्यता के विषय में सब का एकमत है कि मुक्तात्मा विशुद्ध चैतन्य स्वरूप में प्रतिष्ठित रहती है। किंतु विचारों ५ उदान ८०; विसुद्धि मग्ग १६. ७१; १६. ९०; २ तैत्तरीय २.८; ३ मज्झिम निकाय ५७; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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