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________________ है। उनके मत में आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न भी नहीं और शरीर से अभिन्न भी नहीं। उन्हें चार्वाक संमत भौतिकवाद एकान्त प्रतीत होता है और उपनिषदों का कूटस्थ आत्मवाद भी एकान्त दिखाई देता है। उनका मार्ग तो मध्यम मार्ग है जिसे वे 'प्रतीत्यसमुत्पाद'-अमुक वस्तु की अपेक्षा से अमुक वस्तु उत्पन्न हुईकहते हैं। वह वाद न तो शाश्वतवाद है और न ही उच्छेद वाद, उसे अशाश्वतानुच्छेदवाद का नाम दिया जा सकता है। बुद्ध मत के अनुसार संसार में सुख दुःख आदि अवस्थाएँ हैं, कम है, जन्म है, मरण है, बंध है, मुक्ति भी है-ये सब कुछ है, किन्तु इन सब का कोई स्थिर आधार नहीं नित्यत्व नहीं। ये समस्त अवस्थाएँ अपने पूर्ववर्ती कारणों से उत्पन्न होती रहती हैं और एक नवीन कार्य को उत्पन्न कर के नष्ट होती रहती हैं। इस प्रकार संसार का चक्र चलता रहता है। पूर्व का सर्वथा उच्छेद अथवा उस का ध्रौव्य दोनों ही मान्य नहीं हैं। उत्तरावस्था पूर्वावस्था से नितान्त असंबद्ध है, अपूर्व है.---यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती, क्योंकि दोनों कार्यकारण की श्रृंखला में बद्ध हैं। पूर्व के सब संस्कार उत्तर में आ जाते हैं, अतः इस समय जो पूर्व है वह उत्तर रूप में अस्तित्व में आता है। उत्तर पूर्व से न तो सर्वथा भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न, किन्तु वह अव्याकृत है। भिन्न मानने से उच्छेदवाद और अभिन्न कहने से शाश्वतवाद मानना पड़ता है। भगवान् बुद्ध को ये दोनों ही वाद इष्ट नहीं थे। अतः ऐसे विषयों के संबंध में उन्होंने अव्याकृतवाद की शरण ली।' - बुद्धघोष ने इसी विषय को पौराणिकों का बचन कह कर प्रतिपादित किया है : १ न्यायावतारवार्तिक वृत्ति की प्रस्तावना देखें-पृ० ६, मिलिन्द प्रश्न २. २५-३३, पृ० ४१-५२, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001965
Book TitleAtmamimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Sanskruti Sanshodhan Mandal Banaras
Publication Year1953
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Epistemology, & Religion
File Size8 MB
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