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( ३२ ) कम्मस्स कारको नत्थि विपाकस्स च वेदको । सुद्धधम्मा पवत्तन्ति एवेतं सम्मदस्सनं ॥ एवं कम्मे विपाके च वत्तमाने सहेतुके । बीजरुक्खाकानं व पुव्वा कोटि न नायति । अनागते पि संसारे अप्पवत्तं न दिस्सति । एतमत्थं अनबाय तित्थिया असयंवसी ॥ सत्तसचं गहेत्वान सस्सतुच्छेददस्सिनो । द्वासहिदि४ि गण्हन्ति अञमबविरोधिता ॥ दिट्ठिबंधन-बद्धा ते तण्हासोतेन वुव्हरे । तण्हासोतेन वुय्हन्ता न ते दुक्खा पमुच्चरे ।। एवमेतं अभिज्ञाय भिक्खु बुद्धस्स सावको । गम्भीरं निपुणं सुद्धं पञ्चयं पटिविज्जति ॥ कम्मं नत्थि विपाकम्हि पाको कम्मे न विज्जति । अचमबंउभोसुब्ञानचकम्मं बिना फलं ।। यथा न सुरिये अग्गि न मणिम्हि न गोमये । न तेसिं बहि सो अस्थि संभारेहि च जायति ॥ तथा न अन्ते कम्मस्स विपाको उपलब्भति । बहिद्धावि न कम्मस्स न कम्मं तत्थ विजति ।। फलेन सुजं तं कम्मं फलं कम्मे न विज्जति । कम्मं च खो उपादाय ततो निव्वत्तती फलं ।। न हेत्थ देवो ब्रह्मा वा संसारस्सत्थिकारको ।
सुद्धधम्मा पवतंति हेतुसंभारपच्चया ॥ इसका तात्पर्य यह है कि :-कर्म को करने वाला कोई नहीं है, विपाक-कर्म के फल का अनुभव करने वाला कोई नहीं है, किन्तु शुद्ध धर्मों की ही प्रवृत्ति होती है, यही सम्यग्दर्शन है।
इस प्रकार कर्म और विपाक अपने अपने हेतुओं पर अश्रित होकर प्रवृत्त होते हैं, उन में पहला स्थान किसका है यह बीज और
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