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( ३० ) विज्ञानात्मा सतत जागरित नहीं होता, और न सतत संवेदक होता है। मगर सुप्तावस्था में अथवा मृत्यु के समय में वह लीन हो जाता है और बाद में पुनः संवेदक बन जाता है। पुद्गल के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। सुप्तावस्था अथवा मृत्यु के समय उसका भी निरोध होता है । इस तुलना को आंशिक इस लिए कहा गया है कि विज्ञानात्मा ही पुनः जागरित होता है, यह बात मान ली गई थी किन्तु बुद्ध ने तो जागरित होने वाले पुद्गल अथवा मृत्यु के पश्चात् उत्पन्न होने वाले पुद्गल के विषय में यह 'वही है' या 'भिन्न' है इन दोनों विधानों में से किसी को भी उचित स्वीकार नहीं किया । यदि वे यह कहें कि उन्हीं पुद्गलों ने पुनः जन्म ग्रहण किया तो उपनिषत् सम्मत शाश्वतवाद का समर्थन हो जाता है जो कि उन्हें अनिष्ट है और यदि वे यह बात कहें कि 'भिन्न है' तो भौतिकवादियों के उच्छेद वाद को समर्थन प्राप्त होता है। वह भी बुद्ध के लिए इष्ट नहीं। अतः बुद्ध केवल इतना ही प्रतिपादन करते हैं कि प्रथम चित्त था, इसी लिए दुसरा उत्पन्न हुआ। उत्पन्न होने वाला वही नहीं है और उससे भिन्न भी नहीं है किन्तु वह उसकी धारा में ही है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि बुद्ध का उपदेश था कि जन्म, जरा, मरण आदि किसी स्थाई ध्रुव जीव के नहीं होते किंतु वे सब अमुक कारणों से उत्पन्न होते हैं। बुद्ध मत में जन्म, जरा, मरण इन सबका अस्तित्व तो है, किन्तु बौद्ध यह स्वीकार नहीं करते कि इन सब का कोई स्थायी आधार' भी है। तात्पर्य यह है कि बुद्ध को जहां चार्वाक का देहात्मवाद अमान्य है वहां उपनिषत् संमत सर्वान्तर्यामी, नित्य, ध्रुव, शाश्वत स्वरूप आत्मा भी अमान्य
संयुत्तनिकाय १२-२६, अंगुत्तरनिकाय ३, दीघनिकाय ब्रह्मजालसुतं, संयुत्तनिकाय १२. १७, २४; विसुद्धिमग्ग १७. १६६-१७४
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