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( २६ ) धर्म और मनोविज्ञान इन सब पर एक एक करके विचार किया है
और सबको अनित्य, दुःख एवं अनात्म घोषित किया है। इन सबके संबंध में वे प्रश्न करते कि ये नित्य हैं अथवा अनित्य ? उन्हें उत्तर दिया जाता कि ये अनित्य हैं। वे पुनः पूछते कि यदि अनित्य हैं तो सुख रूप हैं अथवा दुःखरूप ? उत्तर मिलता कि ये दुःखरूप हैं। वे फिर पूछने लगते कि जो वस्तु अनित्य हो, दुःख हो, विपरिणामी हो, क्या उसके विषय में 'यह मेरी है, यह मैं हूँ, यह मेरा आत्मा है' ऐसे विकल्प किए जा सकते हैं ? उत्तर में नकरात्मक ध्वनि सुनाई देती। इस प्रकार वे श्रोताओं को इस बात का विश्वास करा देते कि सब कुछ अनात्म है, आत्मा जैसी वस्तु ढूँढने पर भी मिलती नहीं। १
भगवान् बुद्ध ने रूपादि सभी वस्तुओं को जन्य माना है और यह व्याप्ति बनाई है कि जो जन्य है, उसका निरोध आवश्यक है। अतः बुद्ध मत में अनादि अनन्त आत्मतत्त्व का स्थान नहीं है।
हो सकता है कि कोई व्यक्ति इस बात के लिए उत्सुक हो कि पूर्वोक्त मनोमय आत्मा के साथ बौद्ध सम्मत पुद्गल अर्थात् देहधारी जीव, जिसे चित्त भी कहा गया है, की तुलना की जाए । किंतु वस्तुतः इन दोनों में भेद है। बौद्धमत में मन को अन्त:करण माना गया है और इन्द्रियों की भाँति चित्तोत्पाद में यह भी एक कारण है। अतः मनोमय आत्मासे उसकी तुलना शक्य नहीं, परंतु विज्ञानात्मा से उसकी आंशिक तुलना संभव है।
'संयुत्तनिकाय १२. ७०. ३२-३७, दीघनिकाय-महानिदान सुत्त १५, विनयपिटक महावग्ग १.६. ३८-४६.
२यं किंचि समुदयधम्म सब्बं तं निरोधधम्म'-महावग्ग १. ६. २९. 'सव्वे संखारा अनिच्चा-दुक्खा-अनत्ता' अंगुत्तरनिकाय तिकनिपात १३४.
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