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( २२ ) आनन्द की संज्ञा दी गई है। बाह्य पदार्थों के भोग से सर्वथा निरपेक्ष अनुकूल वेदना आत्मा का स्वरूप है और विचारक पुरुषों ने उसे ही आनन्दात्मा कहा है। इस बात की अधिक संभावना है कि अनुभव के संवेदन रूप को प्रधान मानकर प्रज्ञात्मा अथवा विज्ञानात्मा की कल्पना ने जन्म लिया तो उसके वेदना रूप की प्राधान्यता से आनन्दात्मा की कल्पना को बल मिला । यह स्वाभाविक है कि जब आत्मा जैसे एक अखंड पदार्थ को खण्ड खण्ड कर देखा जाए तो विचारकों के समक्ष उसके विज्ञानात्मा, आनन्दात्मा जैसे रूप उपस्थित हो जाते हैं।
विज्ञान का लक्ष्य भी आनन्द ही है, अतः इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि विचारकों ने आनन्दात्मा को विज्ञानात्मा का अन्तरात्मा स्वीकार किया। पुनश्च मनुष्य में दो भावनाएँ हैंदार्शनिक और धार्मिक । दार्शनिक विज्ञानात्मा को मुख्य मानते हैं। किन्तु दार्शनिकों के अन्तर में ही स्थित धार्मिक आत्मा आनन्दात्मा की कल्पना कर संतोष का अनुभव करे, तो यह कोई नई बात नहीं। (६) पुरुष, चेतन अात्मा-चिदात्मा-ब्रह्म
विचारकों ने आत्मा के विषय में अन्नमय आत्मा से लेकर आनन्दात्मा पर्यन्त प्रगति की, किन्तु उनकी यह प्रगति अभी तक आत्म-तत्त्व के भिन्न-भिन्न आवरणों को आत्मा समझ कर ही हो रही थी। इन सब आत्माओं की भी जो मूलरूप आत्मा थी, उसका अन्वेषण अभी बाकी था। जब उस आत्मा की शोध
१ तैत्तिरीय २-५ ।
* Nature of Consciousness in Hindu Philosophy p. 29.
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