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कठोपनिषद्' में जहां उत्तरोत्तर उच्चतर तत्त्वों की गणना की गई है वहां मन से बुद्धि, बुद्धि से महत्, महत् से अव्यक्त-— प्रकृति, और प्रकृति से पुरुष को उत्तरोत्तर उच्चतर माना गया है । यही बात गीता में भी कही गई है। यह प्रक्रिया सांख्य सम्मत है । इस मान्यता से ज्ञात होता है कि प्राचीन मत यह था कि विज्ञान किसी चेतन पदार्थ का धर्म नहीं, अपितु अचेतन प्रकृति का धर्म है । इस मत की उपस्थिति में यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती कि विज्ञानात्मा की शोध पूरी हो जाने पर आत्मा सर्वतः चेतनस्वरूप किंवा जड़रूप सिद्ध हो गया । किन्तु जब विचारक प्रज्ञात्मा की सीमा तक उड़ान कर चुके, तब उनका भावी मार्ग स्पष्ट था । अतएव ब ऐसी परिस्थिति नहीं थी कि आत्मा से भौतिक गंध को सर्वथा निर्मूल करने में विलम्ब हो ।
(५) आनन्दात्मा
यदि मनुष्य के अनुभव का विश्लेषण किया जाए, तो उस अनुभव के दो रूप स्पष्ट दृग्गोचर होते हैं; पहला तो पदार्थं की विज्ञप्ति संबंधी है अर्थात् हमें पदार्थ का जो ज्ञान होता है वह अनुभव का एक रूप है, और दूसरा रूप वेदन संबंधी है । एक को हम संवेदन कह सकते हैं और दूसरे को वेदना | पदार्थ को जानना एक रूप है और उसका भोग करना दूसरा । ज्ञान का संबंध जानने से है और वेदना का भोग से । ज्ञान का स्थान पहला है और भोग का दूसरा । वह वेदना भी अनुकूल और प्रतिकूल के भेद से दो प्रकार की होती है। प्रतिकूल वेदना किसी के लिए भी रुचिकर नहीं होती, परन्तु अनुकूल वेदना सबको इष्ट है । इसी का दूसरा नाम सुख है और सुख की पराकाष्ठा को
१ कठो० १. ३. १०-११.
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