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होने लगी, तब यह कहा जाने लगा कि अन्नमय आत्मा जिसे शरीर भी कहा जाता है, रथ के समान है, उसे चलाने वाला रथी ही वास्तविक आत्मा है । आत्मा से रहित शरीर कुछ भी करने में असमर्थ है। शरीर की संचालक शक्ति ही आत्मा है । इस प्रकार यह बात स्पष्ट कर दी गई कि शरीर और आत्मा ये दोनों तत्त्व पृथक् हैं । आत्म से स्वतंत्र होकर प्रारण कुछ भी क्रिया नहीं करता । आत्मा प्राण की भी प्रारण है । प्रश्नोपनिषद् में लिखा है कि प्राण का जन्म आत्मा से ही होता है । मनुष्य की छाया का आधार स्वयं मनुष्य है, उसी प्रकार प्रारण आत्मा पर अवलम्बित है । इस प्रकार प्रारण और आत्मा का भेद सामने आया ।
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केनोपनिषद् में यह सूचित किया गया है कि यह आत्मा इन्द्रिय और मन से भिन्न है। वहां बताया गया है कि इन्द्रियाँ और मन ब्रह्म-आत्मा के बिना कुछ भी करने में असमर्थ हैं । आत्मा का अस्तित्व होने पर ही चक्षु आदि इन्द्रियां और मन अपना अपना कार्य करते हैं । जिस प्रकार विज्ञानात्मा की अन्तरात्मा आनन्दात्मा है, उसी प्रकार आनन्दात्मा की अन्तरात्मा सद्रूप ब्रह्म है । इस बातका प्रतिपादन करके विज्ञान और आनन्द से भी पर ऐसे ब्रह्म की कल्पना की गई ।
१ छागलेय उपनिषद् का सार - देखें, History of Indian Philosophy vol. 2, p. 131; मैत्री उपनिषद् २.३.४, कठो०
१-३-३ ।
२ केन १.२.
3 प्रश्नोपनिषद् ३.३ ४ केन १.४ -
-६
५ तैत्तिरीय २.६
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